रात्रि में, काव्या ,आर्या और देशमुख वे तीनों एक सुनसान बंगले में पहुँचे — जो कभी महेश्वर का गेस्ट हाउस हुआ करता था। उस बंगले में बिजली नहीं थी, पर भीतर किताबों की सड़न भरी थी। आर्या ने एक पुराना तेल का दीया जलाया।
काव्या ने मेज पर रखकर वह रजिस्टर खोला और बोली—“इसके पन्ने जल चुके हैं, लेकिन अगर यह ‘लेखक’ सच्चा है, तो हर नाम किसी घटना से जुड़ा होगा, हमें उसका पैटर्न समझना होगा।”
अर्जुन की आवाज़ हवा में गूँजी—“पहला नाम: सुमित्रा चौहान — वह गाँव की स्त्री थी, जिसने पहली बार ‘त्रिनेत्र’ का चिह्न बनाया था।
दूसरा नाम: स्वामी महेश्वर — जिसने उसे पुस्तक का रूप दिया।
तीसरा नाम: विजय देसाई — जिसने रहस्य को उजागर करने की कोशिश की और मारा गया।
चौथा नाम…”काव्या का हाथ काँप गया — क्योंकि चौथे कॉलम में लिखा था:“राघव देशमुख (लेखक का संदेशवाहक)”
काव्या ने धीरे से कहा — “देशमुख... तुम्हारा नाम भी जुड़ा है।”
देशमुख चौंका, “क्या?”
उसने रजिस्टर झपट लिया — और जब उसने अगली पंक्ति पढ़ी, तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया:“इंस्पेक्टर देशमुख: पुनर्जन्म सूत्र — लेखक का आंशिक वाहक।”देशमुख को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ ,ऐसा कैसे हो सकता है ?देशमुख पीछे हट गया, उसके ''पैरों तले जैसे ज़मीन सरक गई हो।''“नहीं... यह झूठ है! मैं इस चक्र से बाहर हूँ। मैंने इस संगठन के खिलाफ लड़ाई लड़ी है!”ऐसा नह हो सकता वो अविश्वास से बोला।
काव्या ने ठंडे स्वर में कहा—“क्या तुमने कभी सोचा था ?क्यों, हर घटना में तुम सही समय पर पहुँच जाते हो? क्यों पुलिस के रिकॉर्ड में कभी तुम्हारे आदेश नहीं मिलते लेकिन हर केस में तुम्हारी उपस्थिति होती है?”
देशमुख की साँस भारी हो गई।“तुम... तुम कहना क्या चाहती हो?”
काव्या के अंदर के अर्जुन ने जबाब दिया —“वह कहना चाहती है कि तुमने खुद यह लिखा था — लेकिन तुम्हें याद ही नहीं।
‘लेखक’ दो हिस्सों में बँटा है — एक जिसने सोचा, और दूसरा जिसने लिखा। शायद ‘सोचने’ वाला भाग तुम्हारे भीतर है, देशमुख !”
बंगले के दीवारों में पड़ी दरार से हल्की हवा आई — और दीया काँप गया। उसकी लौ ने दीवार पर तीन परछाइयाँ बनाई — काव्या, आर्या, और देशमुख — पर चौथी परछाई भी थी, जो किसी की नहीं थी।देश मुख धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठ गया।“अगर मैं… लेखक का हिस्सा हूँ, तो मुझे याद क्यों नहीं?”
काव्या ने उत्तर दिया—“क्योंकि लेखक ‘लिखता’ नहीं, वह तुमसे लिखवाता है। तुम उसके ज़रिए सच को रूप देते हो। हर बार जब तुम रिपोर्ट बनाते हो, बयान लिखते हो — तुम वही कहानी दोहरा देते हो जो वह चाहता है।”
देशमुख के माथे पर पसीना आ गया।“तो फिर अब क्या बचा है मेरे पास? मैं अपराधी हूँ या मोहरा?”
काव्या उसके पास आई — आँखों में आग और आँसू का सम्मिश्रण लिए बोली -“अभी तुम इंसान हो लेकिन अगर तुमने अपनी अगली रिपोर्ट लिखी — तो तुम वही बन जाओगे, जो वह चाहता है।”
एक लंबा सन्नाटा,देशमुख ने हथकड़ी निकाली और मेज़ पर रख दी —“अगर मैं उसका माध्यम हूँ, तो मुझे खुद को रोकना होगा।”
अर्जुन की आवाज़ हवा में बोली—“रोको नहीं, तोड़ो। जो भी ‘लेखन’ के हिस्से तुम्हारे भीतर हैं, उन्हें पहचानो और मिटाओ।”
आर्या, जो अब तक चुप थी, अचानक बोली—रजिस्टर के पीछे कुछ उभरा है, देखो — ये नंबर 47 ”
विजय ने अपने आख़िरी संदेश में भी कहा था — “नंबर 47 ”
काव्या ने रजिस्टर के पीछे के कवर को हल्के से खरोंचा। वहाँ एक धातु का पतला टुकड़ा निकला — जैसे कोई माइक्रोफिल्म हो, उन्होंने उसे दीये के सामने रखा।उसके अंदर अक्षर उभर आए —
“रजिस्ट्री नंबर 47 – ‘लेखकों का घर ’ – 1947 में पंजीकृत एक संस्था।”
काव्या ने काँपते स्वर में पढ़ा—“यह संस्था उस समय बनी थी, जब देश आज़ाद हुआ था। नाम था: —'भारत के संगठित लेखक '' उद्देश्य: ‘वास्तविकता को विचारों से संचालित करने का प्रयोग।’
देशमुख बोला—“तो लेखक कोई देवता नहीं... यह तो एक प्रयोग था! किसी ने ये सोचा होगा - कि अगर लेखन इतना शक्तिशाली हो, तो उसे हक़ीक़त में बदला जा सकता है।”
काव्या ने गहरी आवाज़ में कहा—“और वो प्रयोग अब भी चल रहा है।”
बंगले के ऊपर कुछ हिला,आहट सी महसूस हुई ,देशमुख ने बंदूक उठाई, पर काव्या ने रोक दिया।“रुको… अगर लेखक नज़दीक है, तो वह हमला नहीं करेगा — वह बस देखेगा, कि हम क्या लिखते हैं ?”पर अगला पल ही उलट गया — छत की ईंटें टूटीं और एक काली आकृति नीचे कूदी।चेहरे पर नकाब, हाथ में वही लाल स्याही से भरा काग़ज़।वह आकृति आर्या की ओर बढ़ी — पर देशमुख उन दोनों के बीच में आ गया।
गोली चली — और दीया बुझ गया।अंधेरे में बस एक आवाज़ आई —“पन्ना बदल गया…”
जब दीया फिर जलाया, तो नकाबपोश ग़ायब था — लेकिन फ़र्श पर एक नया काग़ज़ पड़ा था।उस पर सिर्फ़ दो पंक्तियाँ थीं:“लेखक ने अपना पहला नाम लिख दिया है और नीचे — खून में लिखा हुआ:“दे... श ...”
देशमुख ने काग़ज़ उठाया — और उस पर अंतिम शब्द पूरे होते गए, जैसे किसी ने अदृश्य उंगली से उन्हें खींचा हो —देशमुख !
देशमुख का शरीर काँप गया,वह चीख पड़ा — “नहीं! मैं नहीं लिख रहा! मैं नहीं!”
काव्या ने उसके हाथ पकड़े —“रुको! तुम उससे लड़ सकते हो। अगर तुमने यह पन्ना पूरा होने से पहले जला दिया — तो लेखक का नियंत्रण टूटेगा!”
देशमुख ने कांपते हुए,जैसे ही दिये से काग़ज़ को आग लगाई और जैसे ही काग़ज़ जला, उसकी आँखें बदलने लगीं — काली, धुँधली, और भीतर कोई दूसरा चेहरा उभरता हुआ।
वह बोला—“तुम देर कर चुकी हो… उसने नया अध्याय शुरू कर दिया है।”
फिर उसका शरीर झटका खा कर गिर गया।काव्या चीखी, -“देशमुख!”
उसके गले से हल्की फुसफुसाहट निकली —“लेखक… अब तुम्हारे भीतर देख रहा है…”और वह शांत हो गया।
रात की ठंडी हवा में काव्या अकेली खड़ी थी। आर्या उसके पास आई —“दीदी, अब हम क्या करें?”
काव्या ने रजिस्टर बंद किया और बोली—“अब हम लेखक को नहीं ढूँढेंगे। अब हम उसे खुद आने देंगे।
अगर वह वास्तविकता को लिख सकता है — तो मैं भी लिखूँगी,हम कहानी बदलेंगे।”
अर्जुन की आवाज़ गूँजी—“क्या तुम समझती हो, इसका क्या मतलब है?”
काव्या ने दीवार पर दीये की रोशनी में स्याही से एक वाक्य लिखा—“लेखक का शिकार अब लेखनी से होगा।”
और तभी हवा में एक हल्की हँसी गूँजी —कहीं पास से, जैसे कोई अदृश्य व्यक्ति उसके कान के पास फुसफुसाया हो—
“अब कहानी, काव्या, तुम्हारे हाथ में है… लेकिन याद रखना — हर लेखक वही बन जाता है, जिसे वो हराना चाहता है।
बाहर रात ठंडी थी, पर हवाओं में एक हल्का लालपन घुला हुआ था।काव्या ने आखिरी बार आसमान की ओर देखा।“देशमुख मरा नहीं है,” उसने कहा, “अब वह अधूरा पन्ना बन गया है। जब तक वह पूरा नहीं होगा, ‘लेखक’ अधूरा रहेगा और अब मेरे पास उसकी अधूरी कहानी है।”
आर्या ने पूछा, “ इसका क्या मतलब है कि अगला नाम—”
काव्या ने उसे बीच में रोका—“नहीं, अब अगला नाम मैं लिखूँगी।”उसने रजिस्टर खोला, और अपने ही नाम के नीचे एक पंक्ति जोड़ी—“काव्या सान्याल — लेखिका।”
पन्ना अपने आप काँप उठा — जैसे किसी ने भीतर से जवाब दिया हो।