काव्या आर्या को महेश्वर की आत्मा से बचाने के लिए ,अर्जुन के सुझाव पर मालिनी से मिलने ''पाताल घाटी ''जाती है ,जो एक बहुत बड़ी तांत्रिक है और महेश्वर की शिष्या भी रह चुकी है किन्तु दोनों के रास्ते अलग -अलग थे। तब मालिनी, आर्या की आत्मा को बचाने के लिए ,काव्या के प्रेम यानि अर्जुन का त्याग करने के लिए कहती है और काव्या इस त्याग के लिए तैयार हो जाती है ,उधर अर्जुन की आत्मा उसके तन से जुड़ा होती है इधर अर्जुन की साँस रुकते ही दीपक बुझ चुका था,तब मालिनी बोली -“काव्या… हो गया।”
काव्या ने हाँफते हुए पूछा -“आर्या?”
“वो अब मुक्त है।”काव्या ने आँसू भरे स्वर में पूछा,“और अर्जुन?”
मालिनी देवी ने धीरे कहा -“वो अब तेरे भीतर है… तेरे प्रेम के रूप में।”
काव्या चुप रही,उसके सीने पर हल्की गर्माहट थी —जैसे अर्जुन की धड़कन वहीं बस गई हो।
काव्या जब घर पहुँची,आर्या दरवाज़े पर खड़ी थी,उसके चेहरे पर शांति थी,आँखें पहले जैसी,उसे देखते ही आर्या बोली -“माँ…”
काव्या ने दौड़कर उसे गले लगाया।“तू ठीक तो है?”
आर्या बोली -“हाँ माँ… लेकिन भैया कहाँ है?”
काव्या मुस्कराई —एक ऐसी मुस्कान जो सिर्फ़ माँ के पास होती है,जब वो अपने आँसुओं को छिपा रही हो।“वो हमेशा यहीं रहेगें ,”काव्या ने अपने हृदय पर हाथ रखकर कहा।
आर्या ने माँ का हाथ थामा —और तभी दोनों ने सुना,अंदर से किसी ने धीरे से कहा -“काव्या !…”दीवार पर तीनों गोले फिर से चमक उठे।काव्या और आर्या जड़ हो गईं, गोले धीरे-धीरे मिटे,पर एक नई लकीर उभर आई —“अब पाँचवाँ बनने वाला है।”
काव्या ने घबराकर आर्या को देखा ,और मुख से अस्फुट सा स्वर निकला -“पाँचवाँ?”
आर्या ने नीचे देखा,जहाँ उनकी परछाई दीवार पर गिर रही थी।अब दो नहीं, तीन परछाइयाँ थीं।
सुबह -सुबह दरवाज़े पर काव्या ने ,एक काली चादर देखी ,उस पर धूल जमी थी ,उस धूल पर तीन गोले और बीच में एक लाल-सा दाग बनकर चमक रहा था — वही चिन्ह जो अब उनकी ज़िन्दगी में रात-दर-रात उभरता जा रहा था।काव्या ने काँपते हाथों से उसे छुआ — धूल के नीचे एक ताज़ा निशान और एक छोटा काग़ज़ चिपका था। उस पर स्याही से सिर्फ़ दो शब्द लिखे थे:“एक और जोड़ा गया।”
काव्या का दिल बैठ गया, अंदर से एक हल्की आवाज़ आई — जो अर्जुन की थी, जो अब उसकी ही आत्मा के एक हिस्से में घर कर चुका था। वह धीरे से बोला—“यह संकेत अब व्यक्तिगत होने लगा है। इसे हम समय पर नहीं रोक पाए तो वही चिह्न तुम्हारे और मेरे नाम पर चमकेगा।”
आर्या, खामोशी से खिड़की के पास खड़ी थी, उसकी आँखों में अब भी कुछ परिपक्व ठहराव था — मगर आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। उसने दरवाज़े पर रखे कागज़ को उठाकर पढ़ लिया और चुपके से पन्ने के कोने में कुछ लिखा — एक छोटे से अक्षर में: “लेख”।
काव्या,जब उस कागज़ को उठाकर देख रही थी —अचानक उसके हाथ काँपने लगे, उसे समझ आया — यह केवल धमकी नहीं, अब यह तेज़-तेज़ एक योजना बन चुकी थी: किसी ने “लिखना” जारी रखा है और लिखी हर चीज़ उनके इर्द-गिर्द सच हो रही है।
अर्जुन जो अब काव्या के अंदर था ,उसने भी काव्या के माध्यम से उस पर्चे को देखा,उसकी आँखों में अब ज्वाला थी, पर वह शारीरिक रूप से कमजोर था, फिर भी उसका दिमाग़ तेज़ था। उसने कहा—“हमने महेश्वर को रोका, पिंजरा तोड़ा, पर किसी ने किताब की ललक और योजना को जिंदा रखा है। जो भी ‘लेखक’ है — वही यह क्रम चला रहा है। हमें उसका सारा आधार-स्तंभ, उसका लेखा -जोखा और उसकी डायरी चाहिए। उसमें लिखा होगा: क्या-क्या हुआ, क्यों और कैसे हुआ ?”
काव्या ने पूछा—उसका लेखा -जोखा कहाँ होगा?”
अर्जुन ने धीमी आवाज़ में कहा—विजय के पास एक संकेत था — उसने, हमें तभी नहीं छोड़ा था, वह गोदाम में कुछ छुपाकर गया था, पर असली कुंजी महेश्वर की फैक्टरी के अंदर सुरक्षित तिजोरी में थी — जहाँ पुलिस ने मलबा हटाते समय कुछ अटकलें बताईं। हमें तिजोरी तक पहुँचना होगा — पर यह जगह अब निगरानी में है।”
विजय की तस्वीर मन में आई — वह आदमी जिसने अपनी जान दे दी थी। अर्जुन ने बताया —
“विजय ने कहा था — ‘यदि उसे कुछ होता है, चाबी इंस्पेक्टर देशमुख के पास होगी।’ मुझे भरोसा नहीं था कि देशमुख हमारी मदद करेगा, पर उस पर विश्वास के सिवा अब हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।”
रात के अँधेरे में, तीनों — काव्या, आर्या और काव्या के अंतःकरण में छिपा हुआ अर्जुन (जो बोलकर दिशा निर्देश दे रहा था) — वे शहर के अंदर उत्तर में औद्योगिक इलाके में पहुँचे। वहाँ'' शिवकुंज फैक्टरी'' का मलबा अब सरकारी-सील में रखा हुआ था; बाहर पुलिस बैरीकेड लगे हुए थे और इंस्पेक्टर देशमुख वहीं थे — चेहरे पर वही कठोरता पर आँखों में कुछ घुटन ! उन्होंने दूर के लाभ की सोचते हुए ,काव्या से कहा—
“अगर तुम्हें हदें पार करनी हैं, तो मुझे भी तो जोख़िम उठाना पड़ेगा ,मेरे काग़ज़ और मेरे काम दोनों काले हो जाएंगे किन्तु मैं तुम्हें अंदर लेकर चलूँगा — सिर्फ़ एक शर्त पर अगर वो डायरी सच में वहाँ है, तो उसका सम्पूर्ण लेखा -जोखा मुझे भी दिखाना होगा और इसके बाद यह मामला सार्वजनिक हो जायेगा।”
काव्या कुछ कहती, पर उससे पहले ही अर्जुन ने उसे रोक दिया और धीरे कहा—“कोई शर्त नहीं, सिर्फ़ काम।”
देशमुख ने आख़िरकार चुपचाप उन्हें ,उस मलबे के अंदर घुसाने की व्यवस्था कर दी — यह मोड़ बड़ा महत्वपूर्ण था, पुलिस का एक चेहरा अब मददगार था; पर अर्जुन की राय में यह मदद पूरी तरह पवित्र नहीं थी, उसके भीतर यह शक था कि देशमुख की निष्ठा कितनी देर टिकेगी ?
फैक्टरी के अंदर उसका बेजान तहख़ाना कचरे और लोहे के टुकड़ों से भरा हुआ था। देशमुख ने कुछ पुराने मानचित्र, रजिस्टर निकाले और एक गुफा-सी दीवार खोली — तामचीनी की कड़ियों के पीछे एक लोहे की तिजोरी थी ,तिजोरी की कुंडी पर एक छोटा निशान था — वही त्रिनेत्र चिह्न।
देशमुख ने हल्की झिझक के साथ कुंजी निकाली और तिजोरी खोली। अन्दर रखा था — एक मोटा, चमड़े का बंधा हुआ रजिस्टर और एक छोटा रेकॉर्ड–– एक पुराना ऑडियो टेप (विजय का) और कुछ जले पन्नों के टुकड़े।
काव्या के हाथ काँप गए जब उसने उस रजिस्टर को खोला। पन्नों पर घुमावदार हाथों की लिखावट में नाम और तारिकाएँ थीं — 23 से ऊपर तक की टिकियों के साथ — और हर नाम के पास लाल बिंदु। कॉलम के नीचे एक पंक्ति लिखी थी — खुलकर:
“क्रम पूरा हो, दूर: सौ पत्र। लेखक का अंतिम बलिदान — पुनः-लेखन।”
काव्या की साँस थम गयी — एक सन्नाटेदार सिद्धांत सामने आया: यह कोई व्यक्तिगत धमकी नहीं, एक संरचित रीत थी ,उस रजिस्टर के माध्यम से एक योजना का पता चला — 100 लिखित “पत्र/ऎपिसोड” जो किसी अंतिम घटना का मंचन कर रहे थे। लेखन पूरा होने पर एक “पुनः-लेखन” होगा — वास्तविकता खुद को लिखित कथानक के अनुरूप बदल देगी।