सीता देवी के घर में आज फिर वही बहस छिड़ी हुई थी।
आँगन में खड़ी तुलसी के पास बैठी, वो तेज़ स्वर में बोलीं—“देखो, अब घर की जिम्मेदारी तो बहू की ही होती है, हमने भी पूरी उम्र घर संभाला है।”
उनकी बड़ी बहू अर्चना रसोई से निकलकर बोली—“माँजी ! मैं भी तो सब करती हूँ, लेकिन अब मेरी नौकरी भी है। दिनभर दफ्तर, फिर बच्चों का होमवर्क, खाना बनाना... कुछ तो बाँटिए।”
सीता देवी ने पलटकर कहा, “हमारे ज़माने में तो किसी ने नहीं पूछा था -कि थक गईं या नहीं, बहू, घर की लक्ष्मी होती है, वही सब संभालती है।”
उसी वक्त, छोटी बहू कविता जो कॉलेज लेक्चरर थी, धीरे से बोली—“माँजी ! लक्ष्मी अगर घर संभालती है, तो कुबेर भी तो साथ देता है न... फिर सब भार एक पर ही क्यों?”
कमरे में सन्नाटा छा गया, सीता देवी को उसका ये जवाब पसंद नहीं आया क्योंकि उन्होंने भी कभी अपने बड़ों को पलटकर जबाब नहीं दिया था, इस बार बात वहीं खत्म नहीं हुई—क्योंकि अब घर में सिर्फ बहुएँ नहीं, सोच की दो पीढ़ियाँ आमने-सामने थीं। सीता देवी की तीनों बहुएँ—अर्चना, कविता और मंजरी—अलग-अलग स्वभाव की थीं।
अर्चना शांत, लेकिन जिम्मेदार, कविता स्पष्टवक्ता और मंजरी नई-नई शादीशुदा, अब भी सबका मन टटोल रही थी।
पिछले कुछ महीनों से घर की रसोई, सफाई और बच्चों की देखभाल को लेकर झगड़े बढ़ रहे थे।हर बार जब कोई काम रह जाता, सीता देवी कहतीं—एक काम ठीक से नहीं होता,हमने भी तो घर संभाला है “बहुएँ ,जब आ जाती हैं ,तब उनका कर्तव्य बन जाता है कि घर को संभालें ।”किन्तु अपने बेटों से कभी नहीं कहा -कि बहुओं की सहायता कर दें।
रवि, अमित और समीर—तीनों अपनी-अपनी नौकरियों में व्यस्त रहते थे।सुबह जल्दी निकलते और रात्रि में भोजन करके थोड़ी देर मोबाइल चलते और सो जाते।
कविता ने एक दिन साहस जुटाया और बोली—“माँजी ! जब आपके बेटों की शादियाँ हुईं थीं , तो आप ही ने कहा था – अब हमारा परिवार पूरा हुआ ,फिर परिवार की जिम्मेदारी आधी ही क्यों? सिर्फ बहुएँ ही क्यों निभाएँ?”
सीता देवी ने जवाब में बस इतना कहा, “क्योंकि यही परंपरा है, बेटी !”बेटे कमाते हैं।
क्या हम नौकरी नहीं करते ?तब हम ही क्यों इस उत्तरदायित्व को निभाएं।
कुछ हफ़्तों के पश्चात घर में एक बड़ा कार्यक्रम हुआ था—सीता देवी की शादी की 50वीं सालगिरह थी
पूरा परिवार जुटा हुआ था, रिश्तेदारों का ताँता लगा था ,लेकिन इस बार सब कुछ कुछ अलग था।अर्चना ने कार्यक्रम की पूरी योजना बनाई, कविता ने सजावट और संगीत देखा, मंजरी ने खानपान का इंतज़ाम किया।
लेकिन बेटों को बस “गेस्ट लिस्ट” संभालनी थी—और वो भी उन्होंने अपनी माँ पर छोड़ दी थी।कार्यक्रम के दिन जब सीता देवी मंच पर बैठीं, तो उन्होंने देखा—कविता और अर्चना हांफ रही थीं, मंजरी का चेहरा थका हुआ था।बेटे , हँसते हुए फोटो खिंचवा रहे थे किन्तु बहुओं के चेहरों पर थकावट नजर आ रही थीं ,मुस्कान नहीं।
सीता देवी के दिल में यह बात चुभी।उन्होंने देखा—तीनों बहुएँ ,उस भीड़ में घुल-मिलकर भी अदृश्य थीं।
उनके बिना सब कुछ बिखर जाता, फिर भी श्रेय किसी और को मिल रहा था।रात को जब सब मेहमान चले गए, तब सीता देवी चुपचाप अपनी बहुओं के कमरे में पहुँचीं।
उन्होंने कहा—आज मुझे अपनी बहुओं पर बहुत गर्व है ,तुम तीनों ने काम को कितने अच्छे तरीके से संभाला किन्तु साथ ही मुझे दुःख भी हुआ ,मेरी बेटियां वहां होकर भी मुझे नजर नहीं आ रहीं थीं वो प्रसन्नता तुम्हारे चेहरों पर नजर नहीं आ रही थी। मुझे माफ करना बेटियों ! आज पहली बार मुझे समझ आया कि घर चलाना किसी एक का नहीं, यह सबका काम है,मुझे लगता है ,मैंने परंपरा के नाम पर तुम पर बोझ लाध दिया ... जबकि ये घर सभी का है।”
कविता ने मुस्कुराकर कहा, “माँजी, अगर ये बात आपसे सुनने को मिल जाए तो हमारी सारी थकान उतर जाती है।”
अगले दिन सुबह जब बहुएँ उठीं, तो रसोई से आवाज़ आई—“अर्चना, आज नाश्ता मैंने बनाया है!”सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई—क्योंकि ये आवाज़ रवि की थी।
अमित बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रहा था, और समीर झाड़ू लगा रहा था।
सीता देवी दरवाज़े पर खड़ी मुस्कुरा रही थीं—“अब घर सच में पूरा लग रहा है ,उस दिन से घर में कोई काम किसी “बहू” का नहीं रहा ,वो “परिवार” का काम बन गया।
और सीता देवी अक्सर कहा करतीं—“परंपरा वही अच्छी, जो सबके चेहरे पर मुस्कान छोड़ जाए ,बाकी, बोझ तो सिर्फ रिश्तों को तोड़ता है।”
सीख़ -“घर की जिम्मेदारी बहुओं की नहीं, सम्पूर्ण परिवार की होती है,जहाँ मिल -बाँटकर उन जिम्मेदारियों को निभाया जाए, वहाँ प्रेम दुगुना हो जाता है।