Qbar ki chitthiyan [part 10]

 गुरुदत्त की चीखें पूरे तहख़ाने में गूँज रही थीं।“नहीं…! ये मेरा साम्राज्य है! तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूँ!”उसका क्रोध बढ़ गया ,ऐसा लग रहा था जैसे अभी भूकंप आ जायेगा ,अचानक उसका शरीर बदलने लगा।उसका चेहरा पिघलने लगा, त्वचा राख में बदलने लगी। उसकी जगह एक लंबी, भयानक छाया खड़ी हो गई।उसके हाथ पंजों जैसे और दाँत नुकीले हो गये थे, वह गरजा—“मैं सिर्फ़ गुरुदत्त नहीं… मैं उन सबका जोड़ हूँ, जिनकी आत्माएँ मैंने खाई हैं,तुम इंसान मुझे नष्ट नहीं कर सकते। तभी ”तहख़ाना हिलने लगा, छत से मिट्टी झरने लगी।

राघव ज़ोर से चिल्लाया—“अब यहाँ रहना उचित नहीं है! अभी भागो!”वे तीनों तहखाने की सीढ़ियों की ओर दौड़े।


पीछे से गुरुदत्त की छाया उनका पीछा कर रही थी,उसकी चीखें कान फाड़ देने वाली थीं किन्तु वह उन तक पहुंच नहीं पा रहा था ,तब अर्जुन ने आख़िरी बार पलटकर देखा—आत्माएँ अब पूरी ताक़त से गुरुदत्त पर टूट पड़ी थीं।वे उसे पकड़कर अंदर खींच रही थीं,उसकी चीख़ गूँजी—“ये खत्म नहीं हुआ, अर्जुन!मैं लौटूँगा। 

जैसे ही अर्जुन, काव्या और राघव सीढ़ियों से बाहर निकले, तहख़ाने के अंदर जोरदार धमाका हुआ।हवेली की दीवारें हिल गईं,धूल और धुआँ चारों ओर फैल गया,वे बाहर भागे और दूर जाकर रुके।पूरी हवेली के नीचे से लाल रोशनी निकल रही थी, जैसे ज़मीन खुद जल रही हो।

अर्जुन ने अपनी उखड़ती सांसों को संभाला और अपने काँपते हाथों से काव्या को थामा, राघव के माथे से अभी भी खून बह रहा था जिसके कारण खून से उसके कपड़े लथपथ हो गए थे किन्तु वो अभी भी उनके साथ खड़ा था।

अर्जुन ने गहरी साँस लेकर कहा—“हमने डायरी जला दी… आत्माएँ मुक्त हो गईं ,लेकिन गुरुदत्त… वह अभी खत्म नहीं हुआ।”

उसी वक्त उनके पैरों के पास एक राख का टुकड़ा गिरा,उस राख पर उभरते हुए अक्षर लिखे थे—

“महेश्वर प्रसाद… अगला शिकार।”

गुरुदत्त के तहख़ाने के ध्वस्त हो जाने के पश्चात अर्जुन, काव्या और राघव गाँव के बाहर एक पुरानी धर्मशाला में ठहरे। रात गहरी थी, लेकिन किसी की आँखों में नींद नहीं थी,बार -बार वे ही दृश्य सामने आ रहे थे। 

काव्या ने राघव की तरफ देखा और काँपती आवाज़ में बोली—“अर्जुन ! हमने तो डायरी जला दी। आत्माएँ भी मुक्त हो गईं… तो फिर ये खेल खत्म क्यों नहीं हुआ?”

अर्जुन ने राख पर उभरे शब्दों को याद करते हुए कहा—“क्योंकि'' गुरुदत्त ''तो केवल एक मोहरा था, इस खेल का असली मालिक तो कोई और है—''महेश्वर प्रसाद।”

राघव के माथे से रक्त बह रहा था उस पर दवाई लगाई किन्तु तभी उसे एहसास हुआ ,उसकी बाजू भी घायल थी ,जिस पर अभी तक उसका ध्यान ही नहीं गया था ,उसने अपनी घायल बाज़ू पर पट्टी कसते हुए कहा—“मैंने उस नाम को फाइलों में देखा है ,वो सिर्फ़ उद्योगपति नहीं… राजनीति में भी उसकी गहरी पकड़ है।

अगर ये सच है, कि उसने बच्चों की बलि से ताक़त पाई है, तो मामला बहुत बड़ा है।”अर्जुन ने मामले की गंभीरता को समझते हुए कहा—“और अब हमें'' उस साँप के बिल'' तक जाना ही होगा। 

सुबह  होते ही, अर्जुन और राघव ने शहर लौटकर'' महेश्वर प्रसाद'' के विषय '' में जानकारी जुटानी आरम्भ कर दी।पुराने अख़बारों, कोर्ट के रिकॉर्ड और पत्रकारिता के सूत्रों से एक कहानी सामने आई।

  • महेश्वर प्रसाद 80 के दशक में एक मामूली सा व्यापारी था।

  • अचानक 90 के दशक में उसका कारोबार आसमान छूने लगा—स्टील, कपड़ा, मीडिया, सब पर उसका राज।

  • उसके बारे में हमेशा अफ़वाह थी कि वह “तांत्रिक शक्ति” का इस्तेमाल करता है।

  • उसका बंगला—शिवकुंज हवेली, शहर के बाहरी इलाके में—आज भी रहस्यों से घिरा है।

काव्या ने अख़बार की कटिंग पढ़ते हुए कहा—अर्जुन !“ये देखो… 2008 में जब स्कूल हादसा हुआ था, उसी साल महेश्वर की नई फैक्ट्री शुरू हुई थी।क्या ये महज़ एक इत्तेफ़ाक़ है?”

अर्जुन बुदबुदाया—“नहीं… ये कोई इत्तेफाक़ नहीं वरन बलि का ही नतीजा था ,गुरुदत्त ने बच्चों की आत्माएँ कैद कीं… और शक्ति महेश्वर को दी।”अब अर्जुन ने ठान लिया—इस बार केवल 'तांत्रिक खेल' ही  नहीं, बल्कि सबूतों के आधार पर भी लड़ाई होगी।

उसने अपना लैपटॉप खोला और पुराने'' दस्तावेज़'' खंगालने लगा।

अर्जुन ! सोच समझकर कदम उठाना अब तुम्हारा पाला कोई साधारण इंसान से नहीं है ,इस  इंसान के पास'' तांत्रिक शक्ति'' के साथ -साथ 'पैसे' और 'राजनीति' की भी ताकत है, राघव ने चेतावनी दी—“अर्जुन, ध्यान रख… महेश्वर प्रसाद पर हाथ डालना आसान नहीं ,उसके खिलाफ़ बोलने वाले पत्रकार ग़ायब हो गए, गवाह रहस्यमय मौत मर गए। अगर तू इससे सीधे भिड़ेगा, तो अगला नंबर तेरा होगा।”

अर्जुन ने ठंडी साँस ली और बोला -अभी तो मौत से सामना करके आये हैं ,अब मौत का इतना भय भी नहीं रहा,अब तो इन्हें डरना होगा  “मौत से डरकर ही तो ये राक्षस, ताक़तवर बने हैं,अब भी अगर सच सामने नहीं आया, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी इनकी क़ैद में होंगी। 

तीनों ने शाम को' महेश्वर प्रसाद 'की हवेली जाने का निर्णय लिया,गाड़ी कच्चे रास्तों से होकर गुज़रते हुए आगे बढ़ रही थी और आखिरकार सामने आई—एक विशाल काली हवेली,ऊँची दीवारें, लोहे के गेट पर तांत्रिक चिह्न, और चारों ओर अजीब सा सन्नाटा।

काव्या ने धीरे से कहा—“ये जगह… उस 'गुरुदत्त की हवेली' से भी ज्यादा डरावनी लग रही है।”

राघव ने गाड़ी रोकते हुए कहा—“हम सीधे अंदर नहीं जा सकते, हमें पहले आसपास से कुछ सुराग जुटाने होंगे।”

गेट पर एक बूढ़ा चौकीदार बैठा था,उसकी आँखें लाल थीं, चेहरा झुर्रियों से भरा था,वो अकेले बैठे किसी तिनके से अपने दाँत कुरेद रहा था ,तब अर्जुन, उसके समीप गया और उससे पूछा -ये किसकी हवेली है ?काफी बड़ी है ,क्या हम इसे अंदर से देख सकते हैं ?जब अर्जुन ने उससे यह सवाल किया, तो वह हिचकिचाया और बोला -

“साहब, यहाँ मत आइए ! ये हवेली इंसानों के लिए नहीं,''महेश्वर बाबू'' यहाँ पूजा करवाते हैं… रात को यहाँ से अजीब -अजीब आवाज़ें आती हैं… बच्चों की चीख़ें सुनाई पड़ती हैं ”

अर्जुन का दिल जोर से धड़का।“बच्चों की चीख़ें? मतलब यहाँ भी…?”

अर्जुन की बात सुनकर बूढ़ा चौकीदार चुप हो गया ,उसे लगा शायद ,उसने गलती से कुछ गलत कह दिया है वो घबरा गया ,फिर धीरे से बोला—“साहब !मैंने कुछ नहीं कहा, न ही आप लोगों ने कुछ सुना ,आप लोग,यहाँ से चले जाइए।”उसकी आँखों में डर साफ़ झलक रहा था,मानो कोई 'अदृश्य ताक़त' उसे चुप रहने पर विवश कर रही हो।

रात्रि का अंधेरा गहराने लगा,वे उस बूढ़े चौकीदार से नजरें बचाते हुए ,उस हवेली में घुस गए और एक सुरक्षित स्थान पर झाड़ियों के पीछे छुपकर अर्जुन, काव्या और राघव उस हवेली की निगरानी करने लगे।

रात्रि बढ़ते ही ,अचानक हवेली के भीतर से ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें गूँजने लगीं,साथ ही मंत्रोच्चारण—तेज़, गहरे और खौफ़नाक होने लगे। 

उन झाड़ियों से पहले एक दीवार थी ,अर्जुन ने उस दीवार से झाँककर देखा,आँगन में लाल कपड़े पहने लोग गोल घेरे में बैठे हुए थे,बीच में ''महेश्वर प्रसाद''—सफ़ेद दाढ़ी वाला, मोटा शरीर, लेकिन आँखों में शैतानी चमक लिए वह किसी पुतले पर तिलक कर रहा था—और पुतले के पास बंधा था…'' एक छोटा बच्चा''

यह सब देखकर काव्या की आँखें चौड़ी हो गईं और बोली -“हे भगवान… ये फिर से बलि देने वाला है। 


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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