शहर के भीड़ -भाड़ वाले इलाके में, एक नुक्क़ड पर ''राधेश्याम '' चाय वाले की दुकान थी। देखने में, वह साधारण सी दुकान थी। दुकान के शीर्ष पर एक पुराने बोर्ड पर ,लिखा हुआ था-'' राधे श्याम चायवाला '' कहने को वह चाय वाला ही था लेकिन सुबह से शाम तक, उसको एक पल के लिए भी फुर्सत नहीं मिलती थी। सारा दिन उसकी दुकान पर, भीड़ लगी रहती थी। रिक्शा वाले से लेकर, ऑफिस के कर्मचारी, और कॉलेज के छात्र तक भी, उसके यहां बैठकर चाय पीकर जाते थे।गपशप के साथ-साथ, उसकी गरम-गरम चाय का भी लुफ़्त उठाते थे। बरसात का मौसम हो या फिर सर्दी का, बारह घंटे उसका चूल्हा जलता रहता था,हाँ गर्मी के मौसम में चाय के ग्राहक कम ही आते थे किन्तु जो चाय नहीं पीते थे ,उनके लिए उसने 'ठंडे 'की व्यवस्था की थी।
राधेश्याम, के होठों पर, हमेशा एक मुस्कान सजी रहती थी, वह अपनी ग्राहक के साथ, बड़े प्रेम से, व्यवहार करता था अब तो उसने चाय के साथ कुछ बिस्किट, और समोसे वाले से भी बात कर ली थी। तुरंत ही नाश्ता भी हाजिर हो जाता था। कुछ लोगों का कहना है -राधेश्याम, पहले चाय वाला नहीं था बल्कि यह एक बड़ा व्यापारी था। व्यापार अच्छा चल रहा था, व्यापार में भी इसको पल भर की भी फुर्सत नहीं रहती थी। ऐसे में वह किसी की बातों की परवाह भी नहीं करता था, धीरे-धीरे उसका अभिमान बढ़ता जा रहा था, अपने अभिमान के चलते, वह किसी का भी अपमान कर देता था। दफ्तर के लोगों के साथ-साथ, वह घर के लोगों का भी सम्मान नहीं करता था फिर चाहे ,उसका अपना परिवार हो या फिर दफ्तर का सहयोगी।
जब इंसान का समय सही होता है, तो मिट्टी भी सोना उगलने लगती है किंतु जब बुरा वक्त आता है तो सोना भी मिट्टी बन जाता है। ऐसे समय में, राधेश्याम का, अभिमान चरम पर था।
एक बार उससे, उसके ही कंपनी के कर्मचारी ने अपनी बेटी के विवाह के लिए उससे सहायता मांगी, वह बहुत ही परेशानी में था, उसकी बेटी की शादी थी किंतु राधेश्याम ने उसकी सहायता करने से इनकार कर दिया। इस बात से उस कर्मचारी, के हृदय को बहुत आघात पहुंचा और उसने कहा -मालिक ! इतना अभिमान भी उचित नहीं है यह तो'' कर्मों का चक्र है , चलता ही रहता है, जो आता है, चला भी जाता है।''
न जाने, कैसे उसकी बद्दुआ लगी, राधेश्याम का व्यापार धीरे-धीरे हानि में जाने लगा, उसने अपने व्यापार को उठाने के लिए बहुत ही प्रयास किया ,यहां तक की अपनी गाड़ियां, बंगला , सब दांव पर लगा दिया किंतु उसका व्यापार,न बढ़ सका। उसके परिश्रम में कोई कमी थी, लेकिन उसके 'कर्मों का चक्र, अब उस पर भारी पड़ रहा था।'' धीरे -धीरे उसे आभास होने लगा कि उसने ज़िंदगी में बहुत गलतियां की हैं और लोगों की बद्दुआएं लीं हैं। आज उसका परिणाम ही वह झेल रहा है। उसका ह्रदय ग्लानि से भर उठा ,जो उसने कमाया था अपने कर्मों और अभिमान के कारण खो दिया।
उसकी पत्नी ने समझाया -अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है ,आप व्यापार जानते हैं ,आपमें वो कौशल है ,आप फिर से शुरुआत कीजिये !छोटे से ही सही ,शुरुआत तो कीजिये !लोगों का प्यार और सम्मान कमाइए !आज छोटे व्यापारी बनते हैं, तो आप अपने व्यवहार से काम भी बढ़ा लेंगे। राधेश्याम को अपनी पत्नी के कहने पर साहस मिला और उसने एक छोटी सी चाय की दुकान से शुरुआत की, उसकी चाय की दुकान चल निकली,धीरे -धीरे उसका काम भी बढ़ा और उसने होटल खोल लिया किन्तु आज भी ''राधेश्याम ''अपनी उसी दुकान पर बैठता है ,इसी दुकान ने, उसे जीवन का सही अर्थ समझाया था। लोगों से प्यार और आदर मिला था। अब उसे अपने पैसे का कोई अभिमान नहीं था ,वो अब जान गया था -कर्मों का चक्र तो चलता ही रहता है। ''