रूही !रूही ! तुम कहाँ हो ? घर के आंगन के मध्य खड़े होकर पारो चिल्ला रही थी।
रूही !अपने कमरे में बैठी हुई ,अपने सपनों के विषय में सोच रही थी ,वो परेशान थी, आख़िर इस सपनों का क्या रहस्य है ? इसी तरह के सपने उसे क्यों दिखलाई दे रहे हैं ? जो चेहरे उसे दिखलाई देते हैं ,आँख खुलने के पश्चात स्मरण क्यों नहीं रहते ?पारो की आवाज सुनकर वो उन विचारों से बाहर आई तो उसे झुंझलाहट हुई ,जैसे किसी ने उसकी उस अजनबी दुनिया में प्रवेश करके कोई गलती कर दी हो, वो उन सपनों की दुनिया में प्रवेश कर ,जानना चाहती है ,आखिर इन सपनों से उसका क्या संबंध है ?पारो के स्वर से उसका ध्यान भंग हुआ ,झुंझलाते हुए बोली -क्या है ? क्यों परेशान हो रही हो ?
आओ !आज तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं ,मौसीजी ,कह रहीं थीं -तुम सारा दिन घर में अकेली रहती हो ,बाहर कहीं आती- जाती नहीं हो ,न ही अभी तक तुम्हारा कोई दोस्त बना है।
मुझे कहीं नहीं जाना ,मम्मी तो, वैसे ही परेशान रहती हैं।
कोई बात नहीं, आज हमारे साथ घूमने चलो !तुम्हें अच्छा लगेगा ,मेरी टीम के लोग भी साथ चल रहे हैं। तुम्हारी भी पिकनिक हो जाएगी ,रूही वहीँ खड़ी अभी सोच ही रही थी ,तभी पारो बोली -हो सकता है ,बाहर तुम्हारे सपनों का कोई इलाज़ मिल जाये और तुम्हारा ना...... म भी, वो शब्द उसने धीमे से कहे। उसे अपनी मौसी की बात स्मरण हो आई थी ,इसे अपना नाम भी मालूम नहीं है।
पारो की इस बात का रूही पर असर हुआ ,तब वो बोली - तुम रुको !मैं अभी आती हूँ ,कहते हुए अपने कमरे में गयी और कुछ देर पश्चात वापस आ गयी। नीचे आकर उसने अपनी माँ तारा की तरफ देखा ,जैसे उनसे इज्जात मांग रही हो।
हाँ बेटा ,जाओ !संभलकर जाना ,रूही ,पारो के साथ चली जाती है ,पारो देख रही थी ,रूही की आखों में एक सूनापन था ,सब कुछ देख, सुन रही थी किन्तु बाहरी रूप से ,अंदर से उसे किसी भी चीज में जैसे कोई रूचि ही नहीं रह गयी थी।एक खालीपन था जो उसे कचोटता रहता है। वो जानती है ,डॉक्टर साहब !और उनकी पत्नी उसके माता -पिता हैं किन्तु अभी भी वह अपने आपको ढूंढ़ रही थी,अपने उन दिनों को खोजना चाहती थी ,जो अब न जाने किन अंधेरों में जाकर खो गए हैं ?
जब पारो ,रूही को लाने के लिए घर गयी थी ,तब तारा जी ने उसे पहले ही समझा दिया था -'रूही' के सामने कोई ऐसी बात मत करना ,जिससे उसके मन -मष्तिष्क पर कोई असर हो। उसे किसी भी तरह का दुःख नहीं पहुंचना चाहिए। हमारे कहने से उसने हमें अपना मान तो लिया है किन्तु अभी भी वह उन दिनों की तलाश में है। कहाँ उसका बचपन बीता ? अब तक वो क्या कर रही थी ? उसके साथ दुर्घटना कैसे हुई ?एक दिन तो हमसे पूछ रही थी -मेरे बचपन की तस्वीरें कहाँ है ? जब मैं आप लोगों के साथ थी,तो मेरे बचपन की तस्वीरें भी तो होनी चाहिए। उस समय तो हमने उससे कोई बहाना किया टाल दिया किन्तु कभी -कभी उसे चुप और सोचते देखते हैं तो दुःख होता है ,न जाने क्या सोच रही होगी ?
पारो ने गाड़ी में बैठी, रूही को देखा ,वो अभी भी,गाड़ी से बाहर देख रही थी ,उसे चेहरे को देखकर लग रहा था ,उसके मन में न ही कोई ख़ुशी है ,न ही दुःख !अनवरत बाहर की तरफ देख रही थी। पारो !के दोस्त हंसी -मजाक कर रहे थे। तब पारो ने रूही से पूछा -क्या तुम ठीक हो ?
रूही ने एक नजर पारो पर डाली और बोली -हाँ, मैं ठीक हूँ।
तुम्हें अच्छा तो लग रहा है।
हाँ ,उसने संक्षिप्त उत्तर दिया ,तब उसने पूछा -हम कहाँ जा रहे हैं ?
ऐसे ही मौज -मस्ती के लिए बाहर निकले हैं ,हमें स्वयं ही नहीं पता, हम कहाँ जा रहे हैं ?हमारे लिए तो ये जगह नई है ,तुम तो शायद यहीं से हो ,तुम्हीं हमें कोई अच्छी सी जगह बता दो। पारो के दोस्त समीर ने रूही से पूछा। उसने यह सब अचानक बोल दिया।
पारो ने रूही के विषय में उन्हें कुछ भी नहीं बताया था किन्तु उसके इस तरह पूछने से ,उसने बात को संभालना चाहा ,तभी रूही बोली - मैं बहुत दिनों तक बीमार रही, इसीलिए अब यहाँ क्या बदलाव आये हैं ? क्या नहीं ,मैं नहीं जानती। तुम लोगों की तरह ही मेरे लिए भी ये सब अनजान है।
कोई बात नहीं ,किसी अनजान शहर में, अनजान गलियों में भटकने का अपना ही अलग मज़ा है ,जहाँ तुम्हें कोई पहचानता नहीं, न ही कोई रोकने -टोकने वाला।
हाँ ,तुमने सही कहा -ऐसी जगह जाओ !जहाँ लोगों के पहचानने का ड़र हमेशा बना रहता है ,आदमी ठीक से खुलकर मस्ती भी नहीं कर पाता, नंदिता बोली।
कुछ दूर जाने पर उन्हें एक मेला दिखलाई दिया ,अरे !ये तो मेला लगा हुआ है ,ये कौन सी जगह है ?
जब मेला देखना ही है ,तो जगह से क्या लेना ,आओ !चलो !मेले में भी घुमा जाये ,कहते हुए समीर जो उस समय गाड़ी चला रहा था। वह गाड़ी को खड़ी करने के लिए पार्किंग के लिए स्थान देखता है किन्तु वहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी ,जिसका जहां मन आया गाड़ी खड़ी करके जा रहा था। वहां पर कुछ ट्रेक्टर थे ,तो कुछ छोटी गाड़ियां।
यहाँ की व्यवस्था देखकर तो लग रहा है ,ये अवश्य ही ,किसी गांव का मेला है ,जहाँ का भी हो हमें क्या ?चलो!आज गांव का मेला भी देख लेते हैं। इसका भी अपना, अलग ही मजा है। पारो !बार -बार रूही को देख लेती थी और वह यह देखना चाहती थी ,किस वातावरण में वह कैसी प्रतिक्रिया करती है ? दरअसल पारो का रूही को घूमाने का,अपने साथ लाने का उद्देश्य भी यही था। ताकि उसे अपने को पहचानने में सहायता मिल सके,हो सकता है ,किसी भी चीज या स्थान को देखकर उसे कुछ स्मरण हो जाये।
वहां बड़े झूले भी थे ,बच्चे -बड़े सभी झूल रहे थे। एक स्थान पर ,अचानक ही जलेबी बनती देखकर रूही ख़ुशी से झूम उठी और बोली -जलेबी !ये तो मुझे बहुत पसंद हैं। पारो और उसके दोस्तों ने आपस में एक -दूसरे को देखा तब चेतन बोला -हाँ ,जलेबियाँ तो मुझे भी बहुत पसंद हैं ,रबड़ी- जलेबी खायेंगें ,कहते हुए वो उस दुकान पर गया और एक पाव जलेबी और एक पाव रबड़ी खरीद ली।
रूही तुम्हें ,रबड़ी -जलेबी कब से पसंद हैं ? तुमने पहले कभी नहीं बताया ,जलेबी खाते हुए वो किसी बच्चे की तरह प्रसन्न थी जैसे किसी बच्चे को उसकी पसंद की वस्तु मिल जाती है और वो खुश होता है इसी तरह जलेबी खाते हुए वो बोली -मुझे भी कहाँ पता था ?आज ही पता चला।