शिखा ,दमयंती जी से जानना चाहती थी ,आखिर 'सुनयना देवी जी' ,कहाँ और किससे मिलने जाती थीं ?
तब उन्होंने बताया -दो दिनों तक तो वो कहीं गयी ही नहीं थीं ,देखा जाये तो मैं भी, जैसे इस बात को भूल ही चुकी थी किन्तु एक दिन जब मैं उस कमरे से या फिर अकेलेपन से घबराकर, हवेली के बगीचे में जाने के लिए बाहर निकली, तभी ध्यान आया गर्वित को भी साथ ले लेती हूँ,उसे भी झूला झुला दूंगी। यही सोचकर मैं अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी ,तभी मैंने उन्हें धीरे से अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर एक गलियारे की तरफ मुड़ते हुए देखा ,पहले तो मैंने जानना चाहा, कि गर्वित कहाँ है? किन्तु उनको इस तरह दबे पांव ,उस गलियारे की तरफ जाते देखा , जिधर शायद, कोई नहीं जाता होगा, क्योंकि उधर मुझे कुछ पुराना सामान ही नजर आ रहा था। सभी बातें भूल , मैं भी उनके पीछे -पीछे जाने लगी।
एक गलियारे को पार करके वे, एक दीवार के सामने जाकर खड़ी हो जाती हैं ,तब वो इधर -उधर देखकर ,उस दीवार में बने एक बड़े से आले की तरफ हाथ बढ़ाती हैं और तभी वो दीवार दो हिस्सों में बंट जाती है। यह दृश्य मेरे लिए आश्चर्यचकित कर देने वाला था क्योंकि इस तरह के द्वार तो मैंने किस्से -कहानियों ,फिल्मों में या फिर महलों में ही देखे सुने थे किन्तु आज मेरे सामने वहाँ ऐसा ही एक गुप्त द्वार खुला हुआ था और पल भर में ही ,मेरी सास न जाने कहाँ गायब हो गयी थीं ?सच कहूँ तो ये सब देखकर ,मैं बुरी तरह ड़र भी गयी थी ,उस हल्के ठंडे मौसम में भी ,मैं पसीने से नहा चुकी थी। तब मुझे स्मरण हुआ अब यही सब तो मुझे संभालना है,मुझे भी तो इस द्वार की जानकारी होनी चाहिए थी।
अब यही सोचकर मुझे आभास हो रहा था,इतने दिनों से मैं यहाँ रह रही थी और इस हवेली में बहुत सी ऐसी चीजें थीं जिनसे मैं अभी भी अनभिज्ञ थी। इस हवेली के मुख्य द्वार से लेकर अन्य रास्तों की भी मुझे जानकारी होनी चाहिए,मुझे भी तो पता होना चाहिए उस द्वार के पीछे क्या है ? यही सोचकर मैं आगे बढ़ी और उस आले तक पहुंच गयी।
मेरे दिल की धड़कने ,मुझसे कहीं ज्यादा तीव्र गति से चल रहीं थीं हालाँकि अब मैं उस हवेली की बहु और होने वाली मालकिन थी किन्तु अभी भी मेरे ह्रदय में न जाने कैसी घबराहट थी ? मैं ये भी नहीं जानती थी ,उस द्वार के दूसरी तरफ क्या है ?अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी,मैं पहले उस आले को देखती हूँ। उसमें मुझे कोई विशेष बात नजर नहीं आई। मैं उसके अंदर और आस -पास कोई बटन ढूंढने लगी ताकि मैं उस दरवाजे को खोल सकूँ। अब तक तो मैंने इस तरह के ही द्वार देखे थे ,मूर्ति घुमाओ ! और द्वार अपने आप खुल जाता है किन्तु वहाँ आस -पास कोई मूर्ति भी नहीं थी। सुनयना देवी जी ने ,यहीं इसी आले में कुछ तो किया था ,मैं वहां खड़ी यही सोच रही थी ,किन्तु उसे खोला कैसे जाये ?यही समझ नहीं आ रहा था।
मैं उस आले को दुबारा बारीकी से देखने लगी तभी मेरा ध्यान ,उससे थोड़े नीचे की तरफ एक पत्थर पर गया। मैं सोचने लगी -आखिर इस पत्थर को यहां क्यों रखा गया होगा ? अवश्य ही इसका, इस द्वार से कोई तालमेल तो होगा किन्तु दूर से देखने पर तो ऐसा नहीं लग रहा था कि सुनयना जी ने कुछ किया होगा । प्रयास करने में क्या जाता है ? यही सोचकर मैंने उस पत्थर को उठाया और सोचने लगी, इसका क्या उपयोग हो सकता है ?
क्या तब दरवाजा खुल गया ?आश्चर्य से शिखा ने पूछा।
नहीं ,इतनी आसानी से खुल जाता तो हर कोई न खोल लेता।
क्या आपने अपनी सास को उस द्वार को खोलते हुए नहीं देखा था ?
दूर से कहाँ नजर आ रहा था ?और वो उसके आगे खड़ीं थीं ,उन्होंने क्या किया ?कैसे पता चलता ?फिर मन में आया एक बार कुंदन को बुलाकर उससे पूछ लेती हूँ ,वो तो इस घर का पुराना विश्वसनीय नौकर है। तभी मन में आया उसने नहीं बताया तो....क्या होगा ?उसने तो उस दिन उनके जाने का कारण भी नहीं बताया था। फिर ये द्वार गुप्त है ,हो सकता है ,इस द्वार की जानकारी उसे भी न हो ,तभी तो ये गुप्त रखा गया है। जब मैं इस घर की बहु होकर भी नहीं जानती तो इस घर के नौकर को ही क्या मालूम होगा ? तब मैंने देखा उस आले में अंदर की तरफ थोड़ी गहराई थी। मैंने उसमें हाथ डालना चाहा किन्तु मैंने अपने बढ़ते हाथों को पीछे खींच लिया। पुरानी जगह है ,हो सकता है ,यहाँ सांप हो ,तभी मन में विचार कौंधा क्यों न इस पत्थर को ही डालकर देख लेती हूँ ये आखिरी बार होगा वरना अब मैं वापस चली जाउंगी।
तब मैंने उस पत्थर को उस गहरे होल में डाला ,उसके डालते ही ,वहां कुछ हलचल सी हुई और वो उठकर फिर वापिस आया तब तक दरवाजा खुल चूका था। तब मुझे उस पत्थर के रहस्य का पता चला। एक तरह से वो उस गुप्त द्वार की चाबी था। उसके पश्चात वो पत्थर लुढ़कता हुआ वापिस अपने उसी स्थान की तरफ जाने लगा और धीरे -धीरे वो द्वार भी बंद होने लगा। मेरे लिए ये आश्चर्यचकित कर देने वाला दृश्य था तभी जैसे मुझे होश आया और मैं बिना सोचे समझे उस द्वार की तरफ दौड़ी और उस द्वार को पार किया ,उस द्वार के बंद होते ही ,वहां एकदम से अँधेरा हो गया। यह देखकर मैं घबरा गयी ,न जाने क्या मुसीबत मोल ले ली ? मैं तो सोच रही थी ,उस द्वार से पार एक सुंदर दुनिया होगी किन्तु वहां घुप्प अँधेरा था ,जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था।
क्या वहां आपको आपकी सास भी नहीं दिखी ?
अरे !दिखती कैसे ?वहां अँधेरा ही इतना था ,वो क्या वहां खड़ी होकर मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी ?मुस्कुराते हुए दमयंती बोली।
तब आपने क्या किया, क्या वहां कोई और द्वार दिखलाई दिया या नहीं ,तब आप आगे कैसे बढ़ीं ?
मेरे लिए वो एक तिलस्म की तरह था ,अभी मैं वहां खड़ी परेशान हो सोच रही थी ,क्या करूं ?तभी एकदम से वहां रौशनी हो गयी। उस रौशनी में मैंने देखा ,वो एक बड़ा सा गलियारा था। मैं आगे बढ़ती चली गयी, जैसे -जैसे मैं आगे बढ़ ही थी ,वो गलियारा छोटा होता जा रहा था। लगभग पंद्रह मिनट तक चलने के पश्चात मैं एक खुले स्थान में थी। मैंने देखा ,झड़ियों के पीछे छिपा वो एक छोटा सा द्वार था क्योकिं मुझे उसी रस्ते वापस भी तो आना था। लोग इधर -उधर जा रहा थे। मैं उस समय कहाँ थी ? नहीं जानती ,किससे पूछूं ? मेरी सास यहां किससे मिलने आई होंगी ?इस तरह मुझे खड़े देख , लोगों की दृष्टि मुझ पर पड़ रही थी। इसीलिए मैं धीरे -धीरे आगे बढ़ने लगी कहाँ जाऊँ ?कुछ समझ नहीं आ रहा था। अभी मुझे चले हुए ,दस मिनट ही हुए होंगे। मुझे मंदिर की घंटी सुनाई दी। मैं उस ओर ही बढ़ने लगी ,मुझे याद था ,वो किसी बाबा की ही बात कर रहीं थीं। शायद इस मंदिर में वही बाबा हों।