' इच्छाएँ' हैं ,अनन्त !
रह जातीं ,कुछ अतृप्त !
दोष किसका ?
प्रभु इच्छा !
या दोष' कर्म' का !
भिन्न -भिन्न प्राणी,
होती इच्छा ! भांति -भांति !
दुष्ट मानव करे इच्छा !
भला न हो, किसी का ,
बढ़ता लालच मन का।
छल , अर्थ, हरण का।
चाहूँ ,हो जाये मन का।
दुर्जन की इच्छा !!!!
प्रभु ! कैसे पूर्ण करें ?
अतृप्त लालसा बढ़ती ,
जीवन लीला घटती।
मोह -माया का पाश !
फ़ेंक, इच्छाएं बढ़तीं।
लिपट जीवन से ,
अशांत मन है ,करतीं।
इह लोक या परलोक !
चैन मिले, न मन का।