आज दमयंती, अकेलापन महसूस कर रही थी ,वह समझ नहीं पा रही थी ,उसकी मंजिल क्या है ?उसे लग रहा था जैसे वो किसी वीराने में भटक रही है।उसके पास सब कुछ होते हुए भी, कुछ नहीं है। सूनेपन की गहरी खाई में, धंसती चली जा रही है। तब ऐसे में जगत ने जैसे उसे नीचे गिरती खाई में अपने हाथों का संबल दे बाहर निकालने का प्रयास किया। ऐसे समय में जगत की बाँहों ने उसे डूबने से बचाया। उन बलिष्ठ बाँहों का सहारा पा दमयंती पिघलती चली गयी।
दमयंती जगत की बाँहों में लिपटी देर तक रोती रही ,उसके ह्रदय का गुब्बार आंसुओं के द्वारा बाहर आ रहा था। वे उसकी स्थिति समझ रहे थे ,ऐसे समय में उन्होंने, उसे सहारा देना उचित समझा। धीरे -धीरे उन दो जवान जिस्मों को एक -दूजे के करीब होने का एहसास होने लगा। दमयंती अभी भी ,जगत के सीने से लिपटी थी। जब उसके ह्रदय की घुटन थोड़ी कम हुई ,उसका रोना शांत हुआ ,जैसे ,उसके मन का दर्द उन आंसुओं की बाढ़ में बह गया,सब कुछ साफ और स्पष्ट नजर आ रहा था। तब उसे जैसे होश आया और उसने अपने आपको संभाला ,धीरे से जगत सिंह जी से अलग होने का प्रयास किया किन्तु उनकी बाहें अभी भी उसके इर्द -गिर्द लिपटी हुई थीं। उसने गर्दन उठाकर देखा ,उनके चेहरे पर सुकून था और जैसे कोई ख्वाब देख रहे हैं ,आँखें मूंदे लेटे हुए थे।
दमयंती अपना रोना भूल गयी, उसे जगत सिंह जी की तीव्र होती धड़कनें सुनाई दे रहीं थीं। वे भी उसके तन के स्पर्श को महसूस कर, आँखें मूंदे उसकी पीठ पर, सिर के बालों को सहलाते रहे। एक पल को तो दमयंती के मन में विचार आया कि वो उनसे अलग हो जाये किन्तु उनको इस तरह शांत देख, चुपचाप लेटी रही। अब तक दमयंती की धड़कनें भी, उनकी धड़कनों की ताल पर ताल मिलाने लगीं। दोनों एक -दूसरे को महसूस कर रहे थे। मन का दर्द और ख़ालीपन अपने को ,भर लेना चाहता था ,दमयंती ने अब कोई विरोध नहीं किया।उसने अपनी बेक़ाबू होती धडकनों को बढ़ने दिया ,उन पर कोई नियंत्रण नहीं किया। दोनों ने ही अपनी धड़कनों के घोड़ों को बेलग़ाम छोड़ दिया।
जगत सिंह ने अपनी मदहोश होती आँखों को खोला और दमयंती की तरफ देखा ,दमयंती ने शर्माकर अपनी नजरें झुका लीं और उसके सीने में अपना चेहरा छुपा लिया।जगत ने दमयंती को अपनी बाँहों के घेरे में और जोर से कस लिया। दो जवाँ दिल, एक- दूजे के लिए धड़कने लगे। दो प्यार के प्यासे पंछी एक ताल पर मिले और एक दूसरे को समझते, कब एक -दूजे के हो गए ,उन्हें पता ही नहीं चला किन्तु दमयंती के अंदर की रिक्तता, कुछ तो था जो अब भर रहा था अथवा दोनों एक दूजे की जरूरत से जुड़ रहे थे।
उनके उस स्पर्श ,उस भाव ने कुछ पल के लिए ही सही 'ज्वाला' को भुला दिया था ,या अब दमयंती, जगत से प्यार करने लगी थी। उसके अंदर का प्यार आज ''जगत सिंह जी'' के माध्यम से पूर्णता को प्राप्त कर रहा था। ज्वाला की दूरी ,जगत के करीब आने का कारण बन गया था। एक पल के लिए स्वयं दमयंती अपने आप में ग्लानि से भर बैठी।
क्या सोच रही हो ?दमयंती की नग्न पीठ पर दृष्टि डालकर,जगत ने पूछा।
कुछ नहीं ,
कुछ तो है ,जो तुम इस तरह मुझसे पीठ किये बैठी हो ,दमयंती को लगा, शायद जगत जी को, मेरा इस तरह से बैठना अच्छा नहीं लगा ,तब वह घूमकर उनके सामने आ जाती है और बोली -न जाने, मेरी ज़िंदगी किस राह पर जा रही है ?
तुम्हें क्या लगता है ? क्या तुमने कुछ गलत किया है ?दमयंती ने नजरें नीची कर लीं,तुम ऐसा कैसे सोच सकती हो ?अब जो हमारे बीच हुआ है ,क्या वो प्यार नहीं था ?तुमने या मैंने ऐसा कुछ भी गलत कार्य नहीं किया है। दमयंती का हाथ पकड़कर अपनी और खींचते हैं और उसके अधरों पर अपने प्यार की मुहर लगाते हुए कहते हैं - तुम मेरी पत्नी हो ,हमारे बीच कुछ भी गलत कैसे हो सकता है ? जगत जी ने दमयंती को फिर से अपनी बांहों में भर लिया,उनके उस प्यार भरे स्पर्श ने उसे एहसास कराया ,दोनों के मध्य ये सब होना स्वाभाविक है।
जगत जी बोले -तुम्हें बुरा तो नहीं लगा ,पति -पत्नी तो हम बहुत दिनों से हैं ,हमारी ''सुहागरात''भी मनी किन्तु आज मेरा' प्रेम' सार्थक हुआ जिसे तुमने सहर्ष स्वीकार किया। दमयंती के पास दो रास्ते थे किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं था। कहते हैं न... जब किसी चीज के लिए किसी को बार -बार रोका जाता है तो उसके प्रति उस व्यक्ति का आकर्षण उतना ही बढ़ता चला जाता है, वही चीज बेरोक टोक सामने दिखलाई देती रहती है ,तब उस पर इतना ध्यान नहीं जाता। यही हाल दमयंती का भी हो रहा था। ज्वाला न ही, उसके जज्बातों को समझ रहा था ,न ही उससे मिलने का प्रयास करता है। दमयंती को यह देखकर बहुत बुरा लगता है।उसके ऐसे रूखे व्यवहार के कारण ही दमयंती'' जगत'' की तरफ खिंचने लगी ,जगत सबकुछ जानते हुए भी, कभी उससे अनुचित शब्द न बोलना और प्यार से उसकी बातें सुनना ,उसका ख्याल रखना ,ये सब जगत की ओर आकर्षित होने के लिए काफी था।
इतना सब होने के बावजूद भी, दमयंती की नजरें ''ज्वाला'' को ढूंढती रहतीं , एक ख़लिश सी थी। ज्वाला से पूछना चाहती थी,उसके रुखे व्यवहार का कारण जानना चाहती थी, किंतु यह सब वह अपने मन के किसी कोने से उठती जिज्ञासा के कारण करती अब उसे, ज्वाला से मिलना, ऐसे लगता, जैसे वह कोई गलत कार्य कर रही है। अगर वह ऐसा करती है, तो' जगत' के साथ धोखा होगा। जिस ज्वाला के लिए वह परिवार के अन्य लोगों से, लड़ रही थी अब इस ज्वाला से छुपकर मिलना चाहती थी। ज्वाला भी न जाने कहां चला गया था? कभी-कभी दमयंती को एहसास होता , कहीं ऐसा तो नहीं, उसके भाई के प्रति बढ़ते मेरे आकर्षण को देखकर , वह मुझसे रूठ कर सदा के लिए चला गया हो। फिर मन को समझा लेती, यह घर तो उसका भी है वह कहां जाएगा ? जहां भी जाएगा, लौटकर तो उसे यही आना होगा। जगत सिंह जी उसका बहुत ख्याल रखते। समय के साथ, परिवार में खुशी की खबर आ ही गई। ठाकुर साहब ने, खुश होकर दमयंती को उपहार दिया और सुनयना देवी ने, दादी बनने की खुशी में, दमयंती को घर की चाबी सौंप दी किंतु दमयंती ने यह कहते हुए ,कि मैं ऐसी हालत में इसका क्या करूंगी ?चाबी लेने से इनकार कर दिया।