Mysterious nights [part 76]

अचानक ही सुनयना जी ,दमयंती से बोलीं -हमने तुम्हारे परिवार वालों से वायदा किया है कि इस घर में कोई और नारी नहीं आएगी। 

उनकी बात सुनकर,दमयंती सोचती है -  यह कैसा वादा है ? कहीं से उस बात के लिए तो नहीं कह रहीं ,जो पापा कह रहे थे ,क्या वो सब सच था ? मैं तो सोच रही थी ,पापा क्रोध में कह रहे हैं। तब उसने अपनी सास से पूछा -मुझे कुछ समझ नहीं आया ,ये आप क्या कह रहीं हैं ? 

इसमें न समझने वाली कोई बात ही नहीं है, अब तक इस परिवार को मैं, ही तो संभाल रही थी मैं भी तो अकेली थी, इसी तरह तुम्हें संभालना होगा। 



किंतु पापा जी के तो कोई और भाई नहीं था , दमयंती ने कहा। 

तो क्या हुआ ? यही रूप भिन्न-भिन्न रूपों में बँट गया। ये चारों उन्हीं की संतान हैं। धीरे-धीरे सबको संभालना होगा अस्त- व्यस्त जिंदगी को व्यवस्थित करना होगा। जिसका जो अधिकार है, वह देना होगा।इस जीवन में, अधिकार की लड़ाई ही तो होती आई है, अधिकार के लिए ही लोग लड़ते हैं। राजा -महाराजा हुए, या फिर आम जनता! अधिकतर परिवार और पैसा यही तो सबको चाहिए। तुम्हें इस घर की सम्मानित बहू का अधिकार मिलेगा, जिसको तुम्हें निभाना है। यह परिवार इकट्ठा रहे, इसका तुम्हें ही प्रयास करना होगा और जब परिवार इकट्ठा होगा तो धन- संपत्ति सब तुम्हारी ही तो होगी। 

आप कहना क्या चाहती है? मैं कुछ समझ नहीं पाई। 

इतनी ना समझ भी नहीं हो ,जो समझ न सको ! इस घर पर एक छत्र अधिकार चाहती हो तो यह सब तो तुम्हें संभालना ही होगा अपने मन को भी समझाना होगा, क्या इतना बड़ा उत्तरदायित्व  तुम उठा पाओगी ?

मुझे कोई उत्तरदायित्व नहीं उठाना है,अभी तो आप कह रहीं है -मुझे ही सब संभालना है ,दूसरी तरफ आप मुझसे पूछ रहीं हैं ,क्या मैं ये उत्तदायित्व उठा पाऊँगी ?अभी मुझे आये दो दिन भी नहीं हुए ,मुझे मेरी ज़िम्मेदारियों से अवगत करा रहीं हैं ,आते ही ,मैं ये सब कैसे संभालूँगी ?पहले इस जगह और यहाँ के लोगों से परिचित तो हो लूँ। वैसे, क्या आप कहीं जा रहीं हैं ?

नहीं ,जा तो कहीं नहीं रही हूँ। 

तब क्या ? मेरी छोटी सी तो जिंदगी है, मैं उसको सुकून से जीना चाहती हूँ। 

ऐसा न हो ,सुकून से जीने के फेर में अपने कर्त्तव्य नहीं भूलने चाहिए,ज़िंदगी के सुकून और कर्त्तव्यों को साथ लेकर चलना चाहिए। 

 वैसे, मेरी जिंदगी में अब सुकून कहाँ रहा ?ज्वाला ने दिल में हलचल की और इस परिवार की हरकतों ने ज़िंदगी में  हलचल मचाई ,मन ही मन बुदबुदाई। 

बहु ! क्या तुम कुछ कह रही हो ?सब्जी धोते हुए सुनयना जी ने पूछा। 

जी ,मम्मी जी ,मैं ये पूछ रही थी ,खाने में क्या बनेगा ?

सब्जियां में धो रही हूँ ,कुंदन काटकर रख देगा ,तुम्हें मीठे में हलवा और खीर बनानी है,क्या ये दोनों तुम्हें बनाने आते हैं ?

जी,प्रयास करूंगी कहते हुए धीरे से कुंदन से बोली -हलवा जिस चीज से भी बनता है ,वही चीजें यहाँ लाकर रख दो !

उसकी बात को सुनकर कुंदन मुस्कुराया और चुपचाप सामान उठा लाया और दमयंती से धीरे से बोला -आप रवा [सूजी ] घी डालकर भूनिये !आकर बताता हूँ। कहते हुए ,सुनयना जी से कहता है -मालकिन !अब आप आराम करिये !भोजन बन जायेगा तब आपको बुला लेंगे। 

अभी मुझे आराम कहाँ ?बहु पर ही तो सारी रसोई नहीं छोड़ सकती हूँ ,ये अकेले नहीं संभाल पायेगी। 

सही कह रहीं हैं ,मेरी ज़िंदगी में तो वैसे ही भूचाल मचा हुआ है ,अभी से इतना काम..... नहीं संभाल  पाऊँगी।   

ये बातें सुनयना जी ने भी सुन लीं और बोलीं -नहीं, यहां तुम गलत हो, तुम्हारी गलतफहमी के कारण ही यह सब हुआ है ? अब तुमने यह सब बिखेरा है तो, समेटना भी तुम्हें ही है। धीरे-धीरे इस परिवार को समझने लगो इस परिवार के लोगों को समझने लगो, सब अपने लगने लगेगें। तुम्हें समय दिया जाता है। तुम पहल किससे और कैसे करना चाहती हो ? 

क्या मतलब ?ये आप क्या कह रहीं हैं ?

जो मैं कहना चाहती हूँ ,वो तुम भी समझ रही हो ,आज सुबह कहाँ से आ रहीं थीं ?उसके चेहरे की तरफ देखते हुए बोलीं। 

दमयंती की नजरें नीची हो गयीं ,तब वो बोलीं -मैं सब समझती हूँ , तुम अपने आप को और अपने मन को मजबूत कर लो और समझ लो ! किसका बनकर रहना है या सभी को एक रस्सी में बांधना है। 

दमयंती इतना ही समझ पाई,कि किसी एक का बनकर रहना है ,यानि जगत या ज्वाला !तब भी बोली -अजब पहेलियाँ  बुझा रही हैं, मुझे कुछ समझ नहीं आया। 

समय के साथ धीरे-धीरे सब समझ जाओगी, अब जाओ ! तुम्हें पहले किसे चाय देनी है, यह निर्णय तुम्हारा है तुम किस दिशा में जाती हो ? सुनयना की बातें दमयंती को भेद भरी लग रही थीं।वह  उनका कुछ अर्थ नहीं समझ पा रही थी।

 तभी कुंदन बाहर से आया और बोला -छोटी मालकिन !लगता है ,सूजी भून गयी ,अच्छी खुशबू आ रही है ,अब इसमें जल्दी से पानी और चीनी डालिये वरना ज्यादा भून जाएगी। कहते हुए आगे बढ़ा और उसे नापकर चीनी और पानी दिया। कुंदन की होशियारी पर सुनयना जी मुस्कुरा कर रह गयीं। 

आज बहु ने खाना बनाया है ,आज इसकी पहली रसोई है ,बहु ,भोजन परोसो ! कहते हुए ,वो अपने पति को भोजन परोसने लगीं। 

दमयंती असमंजस में पड़ गयी और सोचने लगी -पहले भोजन किसे परोसूं ?

शायद ,सुनयना जी भी यही देखना चाहती थीं ,दमयंती को चुपचाप सोचते खड़े देखकर बोलीं -क्या सोच रही हो ?भोजन परोसो !

जी ,कहकर उसने ,सबसे पहले' जगत ' को भोजन परोसा ,उसके पश्चात अन्य भाइयों को सबसे आखिर में ज्वाला को भोजन परोसा ,ये सब सुनयना जी देख रहीं थीं। 

सबके भोजन करके चले जाने  के पश्चात ,उन्होंने दमयंती से पूछा -तुमने सबसे पहले'' जगत'' को ही भोजन क्यों परोसा ?जबकि तुम तो ''ज्वाला'' से प्रेम करती हो।

यह बात तो स्वयं दमयंती भी नहीं समझ पा रही थी, उसकी नजरें नीची  थीं , तभी कुंदन आया और बोला -मालकिन !क्या आप दोनों के लिए भी भोजन लगा दूँ ?

हाँ ,हाँ क्यों नहीं ?बड़े जोरो की भूख लगी है ,जाओ !ले आओ !आज बहु के  हाथों का प्रसाद जो चखना  है। 

दमयंती सुनैना जी को क्या जवाब देती है ? उसने क्यों, जगत को भोजन पहले परोसा? जानने के लिए आगे बढ़ते हैं किंतु एक बात पाठकों से कहना चाहती हूं -यदि आपको कहानी अच्छी लग रही है, तो इसको लाइक कीजिए और अपनी समीक्षाओं द्वारा उत्साहवर्धन कीजिए धन्यवाद !

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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