उदास, थके कदमों से, किशोरी लाल जी, घर से बाहर आए। एक बार लड़की घर के अंदर अपनी सास से मिलने गई ,तो उसे ठाकुरों ने बाहर आने ही नहीं दिया। ठाकुरों का व्यवहार किशोरी लाल जी को, अच्छा नहीं लगा। क्या जबरदस्ती है ? बेटी को जाने नहीं दिया, वे अब समझ रहे थे- कि उन्होंने सास से मिलने के बहाने से शिखा को अंदर भेजा था। ऐसे समय में लड़ भी नहीं सकते थे। दूसरे गांव में आकर, कैसे कुछ कह सकते थे ? अब किशोरी लाल जी को लग रहा था- कि शायद वे, इनसे लड़ भी नहीं पाएंगे। जब वे लोग उनके गांव से ही उसे बहू बनाकर ले आए तो अब कैसे जबरदस्ती वापस ले जा सकते हैं ? अब उन्हें एहसास हो रहा था- उन्होंने अपनी बेटी को इनके साथ भेज कर बहुत बड़ी गलती कर दी है।
अपने गांव का सरपंच और ठाकुरों से रिश्ता होने के नाते, समझदारी से काम लेते हुए उन्होंने, ठाकुर साहब से पूछा था - अब बेटी को कब भेजेंगे ?
बेटी, आपकी है, आप जब चाहे कभी भी ले जा सकते हैं, मिलने भी आ सकते हैं, हमें कोई एतराज नहीं है। वह तो तेजस की मां, अपने को थोड़ा परेशान, दुखी महसूस कर रही होगी इसलिए बहू को उसने अपने पास रख लिया होगा। हो सकता है, उसकी तबीयत भी ठीक न हो।
एक बार आप अंदर जाकर, उनसे बात तो करिए !अभी तो मैं आया हुआ हूं , न जाने फिर कब आना हो ?
कोई बात नहीं, हमारे बच्चे आपकी बेटी को आपसे मिलवा लायेंगे। आप कहते हैं -तो मैं एक बार 'तेजस' की मां से बात कर लेता हूं। कहते हुए अंदर गए ,कुछ देर पश्चात बाहर आए और बोले -मैं सही था , उसकी मां बहुत ही परेशान है, शायद उसकी तबीयत भी ठीक नहीं है ,अभी तो सो रही है इसलिए मैंने उसे जगाना उचित नहीं समझा। आप निश्चिंत रहिए, आपकी बेटी हमारे घर की बहू है। उसे बेटी की तरह रखेंगे,यहां उसे कोई कष्ट नहीं होगा।
''लौट के बुद्धू घर को आए'' मन ही मन किशोरी लाल जी यही सोच रहे थे। ये कैसी विवशता है ?अपनी ही बेटी पर जैसे अधिकार ही नहीं रहा। वे लोग ज़बरदस्ती उस पर अधिकार जमाये हुए हैं। क्या सोचा था, क्या हो गया ? परेशान, थके कदमों से घर से बाहर आ गए।
उधर जब शिखा घर के अंदर गई , तब दमयंती जी बैठी हुई थीं और शिखा को देखते ही बोलीं -तुम तो तेजस को बहुत प्यार करती थी , क्या तुम्हारा प्यार इतनी जल्दी छूमंतर हो गया। थोड़ी सी परेशानी क्या देखी, तुम तो यहां से भागने लगीं।
नहीं, मम्मी जी! मैं भाग नहीं रही थी, वो तो मेरी मम्मी को मुझसे मिलने की इच्छा हो रही थी इसीलिए मैं जाना चाहती थी,उनसे इतने दिनों तक कभी दूर नहीं रही हूँ ,न.....
अच्छी बात है, क्या वह ही तुम्हारी मां है, हम तुम्हारे कुछ भी नहीं लगते ,हमसे मिली नहीं, हमसे बातें नहीं की। कुछ दिन हमारे पास रहतीं ,हम भी बेटी का सुख देख लेते किंतु तुमने तो अपने मायके जाने की ठान ही ली है।अभी तक हम अपने बेटे के ग़म से बाहर नहीं आये हैं। अब तुम ,ये दुःख हमें देकर जाना चाहती हो। हमने सावधानी के तौर पर तुम्हें अलग रखा था, जैसे किसी फूल को सहेज कर रखते हैं। ताकि तुम्हें कुछ ना हो। हमने सोचा था -कुछ दिन हमारे साथ रहोगी, हमारे पास रहोगी,हम, हमारे बेटे का गम भूल जाएंगे।
कोई बात नहीं, मम्मी जी !मैं नहीं जाऊंगी, मैं पापा जी से कह देती हूं -मैं अभी नहीं जा रही हूं, फिर मिलने आउंगी।
जैसी तुम्हारी इच्छा ! जब तुमने यहां रुकने का मन बना ही लिया है ,तो तुम क्यों परेशान होती हो ?' बंदिनी' किस लिए है ? उसके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए बोलीं -हमारी तो कोई बेटी ही नहीं है, अब पहली बार हमारे घर बेटी आई है और वह भी इस तरह से जाएगी, अच्छा, नहीं लगता है।हम समझ सकते हैं , आपके पिता सरपंच जी, वे भी तो अपनी बेटी से प्यार करते हैं किन्तु बेटी की प्रेम में वे यह भूल गए हैं कि अब वह उनके घर की बेटी नहीं बल्कि किसी के घर की बहू बन चुकी है, यह उन्हें समझना होगा।
आप ठीक कह रही हैं, बंदिनी !जाकर पापा से कह दो !मैं फिर आऊंगी।
किशोरी लाल जी 'ठगे से रह गए।' उन्होंने अपनी बेटी के लिए क्या सोचा था -अच्छे बड़े परिवार में उसका विवाह करूंगा ,मेरी भी खूब शान होगी और बेटी सुखपूर्वक रहेगी। किन्तु जो सोचा था, वो तो हुआ ही नहीं किन्तु बेटी पर, असमय ही विधवा का कलंक लग गया। अब सोच रहे थे - जो हो गया ,उसे वापस तो नहीं लाया जा सकता किन्तु अब उसको पढ़ा- लिखा कर जीवन में आगे बढ़ाऊंगा। किन्तु उसकी ससुराल वालों ने तो उसे बाहर आने ही नहीं दिया। मुझसे दुबारा मिलने तक नहीं दिया। मुझे लगता है, वे जान गए थे, कि पिता को देखकर शिखा भावुक हो गई है इसीलिए उन्होंने उसे बाहर ही नहीं आने दिया।
जब किशोरी लाल जी चले गए तब दमयंती जी ने बंदिनी से कहा -बंदिनी !जाओ ! बहू का सामान वापस उसके कमरे में वापस रख दो ! अभी मैं थोड़ा आराम करूंगी। बहु जाकर तुम भी आराम कर लो ! दमयंती जी की बातों में मिठास थी, लेकिन वह अपनापन नहीं था जिसको शिखा भी महसूस नहीं कर पाई।
उसे लग रहा था- कि शब्दों की मिठास से उन्होंने शिखा को निरुत्तर कर दिया। उन्होंने कोई जबरदस्ती भी नहीं की किन्तु उसको रोक पाने में सफल हुईं। शिखा जल्दी-जल्दी छत पर चढ़कर गई और आसपास देखने लगी ,ताकि उसके पिता जाते हुए, उसे दिख जाएं । एक झरोखे से दूसरे झरोखे में झांकती हुई ,आगे बढ़ रही थी ,तभी उसकी दृष्टि अपने पिता पर पड़ी जो अकेले ही आगे बढ़े जा रहे थे ,अपने पिता को ऐसे अकेले जाते हुए देखकर उसकी रुलाई फूट गई और वह जोर-जोर से रोने लगी।
हवेली के मुख्य द्वार पर पहुंचते ही,किशोरी लाल जी ने एक बार मुड़कर अंदर की तरफ देखा शायद, उन्हें उम्मीद थी कि बेटी की एक झलक ही मिल जाए। जाते समय उससे कुछ बात कह सकूं किंतु शिखा तो उन्हें जाते हुए, देख पा रही थी लेकिन उन्हें शिखा दिखलाई नहीं दी। अपनी विवशता पर उनकी आंख से एक बूंद आंसू गिरा और वे उस हवेली से बाहर निकल गए।
बेटी के बिना घर में प्रवेश कर रहे थे , उनके पैर उन्हें एकदम से भारी लग रहे थे ,जैसे आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। सोच रहे थे - मैं सरला को क्या जवाब दूंगा ? उससे क्या कहूंगा ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। सरला भी जैसे उनकी प्रतीक्षा में ही बैठी थी ,आहट होते ही बाहर की तरफ लपकी ,किशोरी लाल जी को अकेले देखकर बोली -क्या शिखा को साथ नहीं लाए ?