आज सुखीराम जी ने ऐसा कुछ कह दिया ,जिससे सबके चेहरों की हवाइयां उड़ गयीं। उन्हें लगा- शायद, पिताजी नाराज हैं ,अथवा किसी ने कुछ कहा है। साहस करके उनके छोटे बेटे ने पूछा -पापा !आप यह क्या कह रहे हैं ? क्या आपसे किसी ने कुछ कहा है या किसी से कोई गलती हो गई है।
सुखीराम जी मुस्कुराते हुए बोले -न ही मुझसे, किसी ने कुछ कहा है और न ही किसी से कोई गलती हुई है। यह मेरा अपना निर्णय है।
किसी ने यह बात सुनी तो लोग क्या कहेंगे ? बच्चों से, इस उम्र में पिता को अपने पास नहीं रखा गया।
कोई कुछ कहता है, इससे मुझे क्या ? किंतु मैं अब अपने उत्तरदायित्वों से मुक्त होना चाहता हूं।
अब आप मुक्त ही तो हैं, अब और क्या चाहते हैं ?
बेटे के इस प्रश्न पर सुखीराम जी मौन हो गए ! कमरे में आ गए। तब सुखीराम जी,अपने कमरे में आकर अपने बिस्तर पर लेट गए ,सामने ही उनकी पत्नी की तस्वीर टंगी थी। उसे देखकर कहने लगे - देख लो !गायत्री !हमने अपने सभी उत्तरदायित्व पूर्ण किये ,तुम्हारे बेटे अपनी -अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए ,बेटियाँ अपनी ससुराल चलीं गयीं। अब तो तुम भी मेरे साथ नहीं हो ,फिर मैं यहाँ किस मोह- माया के वशीभूत पड़ा हुआ हूँ ?सम्पूर्ण जीवन अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने के लिए परिश्रम करता रहा। अब सेवानिवृत्ति के पश्चात ,एक भय सताता है, क्या बच्चे मेरी सेवा कर पाएंगे ?अभी तो मेरे हाथ -पैर चल रहे हैं।उसके पश्चात क्या ?
तुम भी तो सारा दिन यूँ ही लगी रहती थीं किन्तु तुम्हारे अंदर भी एक डर ही था ,कहीं बहु को बुरा न लग जाये ,कहीं बहु कुछ कह न दे ! इनकी सेवा,इनका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर ही आन पड़ा है ,दूसरी बहुएं तो मजे ले रहीं हैं। मैं जानता हूँ,तुम सारा दिन कुछ न कुछ कार्य करके अपने मन का बोझ कम कर लेना चाहती थीं किन्तु रात्रि में ,अपने हाथों से अपने पैर दबाते हुए अपनी थकन मिटाने का प्रयास करती थीं। ऐसी जिंदगी से क्या लाभ ? जिसमें अपने बच्चों के संग रहकर भी,मन पर बोझ बना रहे। उनके चेहरे देखने पड़ते हैं कि कहीं कोई कुछ कह न दे !
मैं भी तो वही कर रहा हूँ ,सुबह दूध लेकर आता हूँ ,बच्चों को स्कूल से लाना ,ले जाना ,तरकारी लाना कुछ कार्य ऐसे करता हूँ ,ताकि उनको मेरा सहयोग मिले किन्तु मुझे लगता है ,उनके लिए, मेरे इन कार्यों का कोई महत्व नहीं है। उन्हें लगता है ,वे मुझे अपने पास रखकर एहसान कर रहे हैं। मैं सोचता था -जब सेवानिवृत्त हो जाउंगा ,तब अपने पोते -पोतियों के साथ ख़ुशी -ख़ुशी समय व्यतीत करूंगा किन्तु बच्चे भी स्कूल से ट्यूशन ,फिर अपने फोन में खेलना ,मुझे लगता है -जैसे किसी को किसी की जरूरत नहीं , फिर मैं क्यों इन पर बोझ बना हुआ हूँ ? क्यों इस मोह में फंसा हूँ ?
एक समय में लोग' वानप्रस्थ' के लिए निकल जाते थे, लगता है - हम यहाँ बच्चों की मजबूरी बन गए, मेरी पेंशन आती है ,किसी पर निर्भर भी नहीं ,हाथपांव चलते हैं ,तब क्यों मैं इनके'' भाव'' के लिए, इनके चेहरे देखने पर विवश हूँ। ऐसा क्यों लगता है ?जैसे ये मुझ पर एहसान कर रहे हैं ?वैसे तो चाय मैं स्वयं ही बना लेता हूँ किन्तु जब भी चाय पीने की इच्छा होती तो बहु से कहते जोर पड़ता ,इसीलिए मैंने सोचा है -अब मैं स्वयं ''वृधाश्रम'' जाकर रहूंगा ,जो ज्यादा विवश हैं ,ऐसे में उनकी सेवा करूंगा। तीर्थभ्र्मण करूंगा। मैं यह कैसे भूल गया ?मैं सुखीराम हूँ ,जहाँ मेरे राम वहीं सुख है ,हर मानव में अब मुझे राम दिखने चाहिए और जहाँ राम वहीं सुख है और जहाँ सुख है वहीं सुखीराम है।