रामखिलावन, अपनी बेटी से बात कर रहा था किंतु कोई भी निर्णय न देखकर, अंगूरी को क्रोध आ गया और उसने एक झन्नाटेदार थप्पड़ सरस्वती के गाल पर जड़ दिया। अभी कुछ देर पहले जो वातावरण एक दूसरे से मिलने की खुशी में, सब मिलजुलकर खा पी रहे थे, अचानक शांत हो गया। रामखिलावन कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। उसे अपनी बेटी से, इस तरह की उम्मीद ही नहीं थी। वह जानता है, जब बच्चे पढ़ -लिख जाते हैं तो ज्ञान हो या न हो ,किन्तु वाकपटुता बढ़ जाती है, किन्तु सभी माता -पिता अपने बच्चे के विषय में इस तरह का कुछ सोच ही नहीं पाते कि वो परिवार से अलग या उससे ऊपर भी कुछ सोच सकता है।
इसी कारण से,उन बातों को शीघ्रता से,समझ नहीं पाया,अंगूरी नहीं चाहती थी कि इन्हें सरस्वती के किसी भी व्यवहार से, दुख पहुंचे। थप्पड़ मार कर ही सही, वह बेटी को शांत कर देना चाहती थी किंतु थप्पड़ मारने से वातावरण और बिगड़ गया। गाल को सहलाते हुए, अचानक सरस्वती चीखते हुए बोली -क्या अजीब जबरदस्ती है ? मुझे विवाह नहीं करना है , और करूंगी तो अपनी इच्छा से..... मौके की नजाकत को समझते हुए रामखिलावन ने अंगूरी की तरफ, आँख के इशारे से शांत रहने का इशारा किया।
तब रामखिलावन सरस्वती से बोला - बेटा क्या हुआ है ? हमें तो कुछ बात समझ ही नहीं आ रही है। आखिर हुआ क्या है? तुम, क्या चाहती हो ?
मुझसे जबरदस्ती विवाह करने के लिए कह रहे हैं।
कौन कह रहा है ? तुम जब छोटी थीं , हमने तब भी तुमसे कोई जबरदस्ती नहीं की थी। सब कुछ प्यार से और प्रेम से, तुम्हारे सुंदर भविष्य को सोचकर कर रहे थे तो अब क्या हो गया ?
आप मेरा विवाह ही करना चाहते हैं, तब' अरशद' से क्यों नहीं ? क्रोधित होते हुए सरस्वती बोली।
कौन है ?यह ''अरशद'' एकदम गंभीर होते हुए रामखिलावन ने पूछा।
अभी तो आपको, प्रेम ने बताया,कोई लड़का है।
क्या, ये बात सही है ?रामखिलावन ने सरस्वती से जानना चाहा। वह अभी भी सिर नीचे किए खड़ी थी, किंतु मन ही मन उबाल रही थी। जवाब क्यों नहीं देती हो ? रामखिलावन ने पुनः पूछा।
उसमें ऐसी क्या बात है ? जिसके कारण तुम, अपने परिवार का विरोध कर रही हो, इज्जत -बेइज्जती का भी ख्याल नहीं है। क्या उसने तुमसे कोई जोर जबरदस्ती की है ? सरस्वती में न में गर्दन हिलाई, तो फिर तुम क्या चाहती हो ? किस जाति का है ? क्रोधित होते हुए रामखिलावन जी बोले।
इससे क्या फर्क पड़ता है ? वह किस जाति का है या किस धर्म का है, बस वह इंसान है।
थोड़ा नरम होते हुए बोले -पढ़- लिखकर तुमने यही सीखा, तुम्हारी बात हम मानते हैं, कि वह एक इंसान है, किंतु इससे ही समाज नहीं चलता, जिस समाज में हम रहते हैं, उसको भी जवाब देना होता है। जब चार लोग पूछेंगे ! कि तुम्हारी बेटी ने, इस रिश्ते से इंकार क्यों कर दिया, तो हम क्या जवाब देंगे ? तुम्हारे पास कोई जवाब है।
समाज हमें खाने को नहीं देता, तुरंत ही सरस्वती का जवाब आया।
मानता हूं, समाज खाने को नहीं देता है किंतु हर चीज की एक सीमा होती है , हर चीज का एक कायदा होता है। हर इंसान की सोच एक जैसी भी नहीं होती। जिन संस्कारों के साथ तुम पली -बढ़ी हो, वहां एकदम विपरीत होंगे। अभी तुम प्यार- प्यार कर रही हो , किंतु वास्तविकता कुछ और है। जब हम किसी कार्य को करते हैं, उसका कानून भी अलग होता है उसकी सीमाएं भी अलग होती है , तभी यह संसार सुचारू रूप से चलता है। अगर हर कोई बेखौफ अपनी मन मर्जी करने लगेगा तो व्यवस्था ड़गमगा जाएगी इसलिए देश हो या घर, उसकी सीमाएं तय करनी होती हैं , नियम बनाने पड़ते हैं उनके आधार पर हमें चलना होता है। वरना हर कोई अपने नियम से ही चलेगा किसी का कोई नियम नहीं होगा तो सब कुछ बिखर जाएगा। जैसे- एक परिवार होता है, उस परिवार में सब लोग मिलजुल कर चलते हैं, उस परिवार का एक बड़ा मुखिया होता है, वह उस परिवार के सदस्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है, उनके सुख-दुख, अच्छे -बुरे का ख्याल रखता है और यदि उसे परिवार के लोग अपनी मनमर्जियां करने लगें कोई इधर भाग रहा है, तो कोई उधर भाग रहा है , तो तुम सोचो! उस परिवार की क्या व्यवस्था होगी ?
''काम बिगारे आपनो ,जग में होत हंसाय।
जग में होत हंसाय ,चित्त में चैन न पावेे ।
मुझे इतना सब नहीं सोचना है।
नहीं सोचा है, तो अब सोचो ! हर परिवार के कुछ नियम होते हैं, जिसका परिवार के सदस्य पालन करते हैं।उन सभ्य परिवारों से मिलकर, एक 'समाज' बनता है और समाज में एक व्यवस्था होती है, जो बिखरनी नहीं चाहिए। यह उत्तरदायित्व उस घर के' मुखिया' का होता है। कि बच्चों को कितनी स्वतंत्रता देनी है, और कितनी सीमा में रखना है ? मुझे लगता था, कि मेरी बेटी पढेगी अपने पैरों पर खड़ी होगी। अपने घर परिवार का नाम रोशन करेगी इसलिए तुम्हें पढ़ाने के लिए, तुम्हारे दादाजी के विरोध करने पर भी मैंने शहर में भेजा किंतु मुझे लगता है तुमने हमारे प्यार का ,अनुचित लाभ उठाया है। तुम्हें शिक्षित किया था, ताकि तुम आगे बढ़ने के साथ-साथ, देश का नाम भी रोशन करो, किंतु मुझे तो लगता है,तुम हमारा नाम तो करोगी किन्तु हमारा मज़ाक बनवाने के लिए ,अब तुम्हारी यात्रा यहीं पर समाप्त हो जाती है और तुम्हारी सीमाएं भी,यहां तक समाप्त होती हैं। कल अपना सामान बांध लेना, हमें तुमसे कोई नौकरी नहीं करवानी है, घर में रहना, और जब कोई अच्छा सा लड़का हम ढूंढ लेंगे, तब उससे विवाह करके तुम अपने घर में सही सलामत चली जाना।
मैं कहीं नहीं जा रही हूं, न ही, मैं अपनी नौकरी छोडूंगी, अपनी बेटी की बात सुनकर अंगूरी को फिर से गुस्सा आया और वह उठ खड़ी हुई और उसने एक दो नहीं चार-पांच थप्पड़ उसके, मुंह पर लगा दिए ! तब वह चिल्लाई -इस तरह तुम लोग मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते। अब मैं बालिग़ हो चुकी हूं, मैं वही विवाह करूंगी, जहां मेरा मन चाहेगा।