Shaitani mann [part 9]

आज ''गोविंद विला'' बहुत अच्छे से सजाया जा रहा है, चारों तरफ छोटे-छोटे बल्बों की लड़ियां लटकाई  जा रहीं  हैं। गैंदा  और गुलाब के फूलों की मालाएँ और लटकन तैयार करने का आदेश दे दिया गया है।  अभी-अभी ,पद्मिनी जी ,नए और कोरे दीपक बाजार से लेकर आई हैं। घर में मिठाई और पकवान की, खुशबू फैली हुई है। हर व्यक्ति अपने कार्य में व्यस्त है, हर कोई अपना हंड्रेड परसेंट देना चाहता है वरना वे जानते हैं पद्मिनी जी ,को यदि कार्य पसंद नहीं आया तो पैसे भी नहीं मिलेंगे और वही कार्य दुबारा करवाएंगीं।  इसीलिए क्यों न पहले ही ,वह कार्य अच्छे से पूर्ण कर लिया जाये क्योंकि इस घर की मालकिन पद्मिनी ने, सभी को अलग-अलग कार्य सौंपे हुए हैं। 

हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है ,इस घर में खाली बैठे हैं तो सिर्फ दादाजी !जो अपने पैरों से, कम ही चल पाते हैं बाकी किसी को भी फुर्सत नहीं है , कि थोड़ी बैठकर सांस ले ले। पद्मिनी जी को भी तनिक भी समय नहीं है, कभी तो लड़ियों को बताने जाती हैं कि कहाँ -कहाँ लगानी हैं ? तो कहीं रंगोली देखने जाती हैं और कभी रसोई घर में, आखिर थककर  कह ही देती हैं -अब मुझसे इतना कार्य नहीं होता, अपने बेटे के लिए एक बहू ले आओ। 

बहु तुम्हें चाहिए कि बेटे को....... अभी तो उसकी पढ़ाई भी पूर्ण नहीं हुई'' समाचार पत्र ''पढ़ते हुए, नरेंद्र जी कहते हैं। 

आपको तो, इस अखबार को पढ़ने से ही फुर्सत नहीं है, प्रातः काल से ही, इसका बहाना लेकर बैठ जाते हैं यह नहीं देखते मैं अकेली क्या-क्या करूं ?

 तुम्हें सिर्फ देखना ही तो है, सभी कार्य तो अन्य लोग कर ही रहे हैं। 

हां ,हां मैं तो कुछ भी नहीं करती हूं। कब से इस घर में इधर से उधर दौड़ लगा रही हूं, बेमतलब की दौड़ है , मैंने आज तक किया ही क्या है ?कभी ससुर को दवाई देनी है ,कभी सास के लिए समय पर भोजन तैयार करना है। आपको तो मेरा काम ,काम ही नहीं लगता। अब बच्चे क्या बड़े हो गए ,आपको तो लगता है जैसे घर में अब काम ही नहीं रहा है , करने वाले के लिए तो ,काम बहुत है न करने वाले के लिए ,तो कुछ भी नहीं बैठकर अखबार पढ़ना ही नहीं होता है। आज भी प्रातः काल उठकर नाश्ते की तैयारी करना ,क्या बनेगा ?पापा जी को दवाई देना। कपड़े धुलने डालना और भी न जाने कितने कार्य हैं। 

तुम मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।

नहीं, मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं। 

तुम सब कह देती हो ,मैं सब समझता हूँ। तुम्हें मैं, घर में ख़ाली बैठा नजर आता हूँ ,मेरा काम नजर नहीं आता। जब मैं अपने कारोबार में व्यस्त रहता हूँ ,तब तुम मेरी सहायता नहीं करतीं और न ही मैं, तुमसे कोई सहायता लेता हूँ। तुम्हें मेरा व्यापार करना कोई काम नहीं लगता। ये जो तुम खर्चे कर रही हो ,मेरे कार्य की बदौलत कर पाती हो। 

अब पद्मिनी को लगा, कि मैंने  इनसे कुछ गलत कह दिया है, इन्हें बात चुभ गई है। तब वह कहती है -मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था किंतु आप पता नहीं,बात को कहां से कहाँ ले जा रहे हैं ?ये तो सोचा नहीं ,अबकि बार बेटा छुट्टियों में कब आ रहा है ?न ह कोई फोन किया और न ही कोई पत्र लिखा ,बातों का रुख बदलते हुए बोली। 

 तब भी ,नरेंद्र जी की भड़ास पूरी नहीं हुयी और बोले -तुम ,हमेशा मुझ पर वाक्य बाण चलाती रहती हो। वो तो अच्छा है , मैं अच्छे से बचा लेता हूं , बचपन से ही आदत है, अपना बचाव करने की। 

हां हां आपको तो पहले ही मालूम था, कि आपको लड़ाकू पत्नी मिलेगी, इसलिए आपने बचपन से ही  अभ्यास कर लिया था । 

हां ,तुम मेरे सपनों में आती थीं, वहां भी लड़तीं ही रहतीं थीं,मुस्कुराते हुए नरेंद्र जी बोले। 

जब आपको पहले से ही मालूम चल गया था कि मैं लड़ती हूँ ,तो तभी रिश्ते से इंकार कर देना चाहिए था।  नरेंद्र जी समझ गए कि अब ये चिढ गयी है ,इसे पहले कि बात और बढ़े वो ''समाचार पत्र ''एक तरफ रखते हुए,सोचते हैं ,मैं भी थोड़ा कार्य देख ही लेता हूं वरना यह यहां आकर-आकर मुझे ताने सुनाती रहेगी। 

तभी अंदर से गोविंद जी की आवाज आती है -बहु !दवाई का समय हो गया, दवाई दे जाओ !पद्मिनी जी  अपने पति की तरफ देखते हुए कहती हैं -जब घर के कार्यों में हाथ नहीं बंटा रहे हो, तो कम से कम अपने पिता का तो ख्याल रख ही सकते हो उन्हें समय पर दवाई तो, दे ही सकते हो। 

हां ,तुम्हें तो मैं ही दिखता रहता हूं, यही तो है, आदमी व्यापार करता है तो समय बेसमय, घर चला ही आता है उसे कोई ड्यूटी तो देनी नहीं होती किंतु पत्नी को लगता है ,यह खाली घूम रहा है, इसे कोई काम नहीं है। कहते हुए उठते हैं और अपने पिता के रूम की कमरे की तरफ चले जाते हैं। बात जहाँ से आरम्भ हुई थी ,वहीं पर फिर से आकर अटक गयी। 

बाहर क्या हो रहा है ?गोविंद जी ने बाहर का ज़ायजा लेने के लिए पूछा। 

वही साफ- सफाई ,टूट -फूट हो रही है, और सजावट भी हो रही है। 

हां ,साल भर का त्यौहार है, आज तुम्हारी मां जिंदा होती तो सब संभाल लेती , उसे बरसों से इन कार्यों की आदत है। बेचारी ,बहू ! अकेली थक जाती होगी। 

हां ,माँ ही तो यह सब संभालती थीं किंतु इस बार पद्मिनी पर बहुत काम का बोझ पड़ गया है इसलिए सारा क्रोध मुझ पर ही निकाल रही है। कहते हुए ,अपने पिता की तरफ देखते हुए मुस्कुराए और उन्हें दवाई दी। दवाई लेकर गोविंद जी आराम से लेट गए तभी बाहर कुछ बातचीत की, सुनाई देने लगी। लगता है,जैसे  कोई आया है। 

हाँ ,शायद !अब आप आराम कीजिए ,मैं देखता हूं। जैसे ही वह बाहर आए, वैसे ही नितिन को देखकर मुस्कुराये और नितिन को देखकर बोले -''बड़ी लम्बी उम्र है, तुम्हारी ''अभी ,थोड़ी देर पहले तुम्हारी मम्मी,तुम्हें याद कर रही थी। तुरन्त ही ,नितिन ने  झुक कर उनके पैर छुए। आ रहे थे ,तो दो दिन पहले ही आ जाना चाहिए था,तुम्हारी माँ की सहायता हो जाती ,जब देखो, मुझसे लड़ती रहती है।  बेटे, को इतने दिनों पश्चात नजर भर देखने के लिए, उन्हें बेटा, कुछ बदला- बदला सा लगा। पेंट की जगह जींस पहन रहा था, पहले से बहुत अधिक आकर्षक हो गया है, मन ही मन उसको देखकर मुस्कुराये। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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