Shaitani mann [part 10]

नितिन दीपावली की छुट्टियों में अपने घर जाता है, जहां पर उसके घर यानी गोविंद विला में, दीपावली की सजावट के साथ साफ सफाई करवाई जा रही है। पद्मिनी जो उसकी मां है, सब कार्य उनकी देखरेख में हो रहा है किंतु उन्हें अपने पति से शिकायत है कि वह किसी भी तरह से कार्य में सहायता नहीं करवा  रहे हैं। इस तरह पति-पत्नी की नोकझोंक होती है , बात ज्यादा आगे ना बढ़े इसीलिए वे वहां से चली जाती हैं। तभी नितिन अचानक ही घर में प्रवेश करता है, उसने जानबूझकर अपने आने की कोई सूचना नहीं दी। उसके आते ही, उसके पिता नरेंद्र जी, उससे, उसकी मां की शिकायत करते हैं। इतने दिनों पश्चात बेटा आया है, उन्हें ऐसा लग रहा है , जैसे अब यही सब संभाल लेगा।

 उनकी शिकायत पर नितिन कहता है-आप दोनों का तो रोज का यही है,मैं रहूं या न रहूं। वह जानता है, मम्मी और पापा की मीठी नोक -झोंक यह जीवन भर चलने वाली है। वैसे दोनों एक दूसरे के बिना, रह भी नहीं सकते।  


नितिन को कुछ सोचते देख कर, उन्होंने नितिन से पूछा-तुम अपनी मां से मिल लिए !

नहीं ,वे यहाँ,  दिखलाई नहीं दीं। 

घर में मजदूर लगे हुए हैं, यही कहीं,काम देखने गई होगी, आराम से बैठ नहीं सकती, उसे लगता है ,कि जब तक वह नहीं, देख लेगी। तब तक वह कार्य ठीक से नहीं करेंगे। 

ठीक है ,मैं उन्हें ढूंढकर, स्वयं ही, उनसे मिल लेता हूं। 

आते ही, मेरी बुराई आरम्भ कर दी ,मैं क्या कहीं खो गई हूं ?पीछे वाले बगीचे में गई थी , वहां भी थोड़ी साफ -सफाई की जरूरत है। उसके लिए कह कर आई हूं ,कहते हुए वह आगे बढ़ती हैं और नितिन भी आगे बढ़कर अपनी मां के पैर छू लेता है। पद्मिनी उसे आगे बढ़कर गले लगाती है ,अब तो नितिन लंबा हो गया है ऐसा लगता है ,जैसे माँ ही उसके गले लग रही है। इतने दिनों पश्चात ,बेटे को देखकर उनकी आंखें नम हो आती हैं और पूछती हैं , अब कैसा है ?तू....... 

कैसा होगा ?ठीक है, स्वस्थ है , देख नहीं रही हो आजकल तो जींस पहनने लगा है, अब तुम्हारा बेटा बड़ा होता जा रहा है। अपने पति को इस तरह खुश होकर ,उसकी तरफ देखते हुए ,पद्मिनी देखती हैं तो पद्मिनी मन ही मन कुछ मंत्र सा पड़ती है और थू -थू करती है और अपने पति से कहती है -इस तरह क्या देख रहे हैं ? बेटा अभी-अभी आया है , बहुत दिनों बाद देखा है , इस तरह मत देखो !अपनों की ही नजर लग जाती है। 

मेरी नजर नहीं लगती, मां की नजर लगती है, तुम मत देखना !

तभी संतोष पानी लेकर आती है, लीजिए भैया ! पानी पी लीजिये। 

पानी का गिलास हाथ में लेते हुए ,नितिन ने पूछा -अरे !तू अभी तक यहीं है ,तेरे तो विवाह की बात चल रही थी , तू अभी तक नहीं गयीं ।

नितिन की बात सुनकर, उसका चेहरा उतर गया ,और उसके चेहरे की मुस्कुराहट न जाने कहाँ गायब हो गयी ?खाली गिलास लेकर ,चुपचाप वापस चली गयी। इसे क्या हुआ ?मैंने इसे, ऐसा क्या कह दिया जो इस तरह इसका मुँह बन गया। 

मुँह बना नहीं है ,वरन वो उदास हो गयी है। 

इसके साथ ऐसा क्या हुआ ?

बाद में तुझे इसकी बात बताउंगी ,तू अभी -अभी आया है ,पहले अपने कपड़े बदल ले और हाथ -मुँह धोकर भोजन कर ले ,तब आराम से बैठकर बातें करेंगे। 

पहले एक बार दादा जी से तो मिल लूँ ,नहीं तो, फिर से कहेंगे -नालायक !पढ़ने क्या गया ?अपने संस्कार ही भूल गया ,मुस्कुराते हुए अपने दादा के कमरे की तरफ बढ़ गया। 

दोनों पति -पत्नी मुस्कुराते हुए उसे जाते देखते हैं ,जब वह अपने दादा जी के कमरे में ,जाता है तब गोविंद जी , उसे देखकर खुश होते हैं , तू आ गया। अबकी बार तो बहुत दिनों में आया है। 

हां दादा जी ! पैर छूते हुए वह उनके करीब ही बैठ जाता है, और अब आपका स्वास्थ्य कैसा है ?

बुढ़ापा है, बस जब समय आएगा तो चले जाएंगे, टाइम काट रहे हैं, कहीं आना-जाना नहीं होता। इस कमरे में पड़ा रहता हूं। बोर हो गया हूं। 

यह बात आपने पहले क्यों नहीं बताई ? अभी आपके घूमने फिरने का इंतजाम करते हैं। 

तू क्या इंतजाम करेगा ? जो घूमना फिरना था हो चुका।

 ऐसा नहीं है, आज ही मैं कुछ करता हूं , अब आप आराम करिए ! मैं भी कपड़े बदल लेता हूं।

यह क्या करेगा ? यह सोचकर दादाजी मुस्कुराए, उसकी तरफ देखा और मन ही मन खुश हुए। 

शाम को जब, नितिन घर आया तो उसके हाथ में कुछ था और बोला -आइये ! दादाजी देखिए मैं आपके लिए क्या लाया हूं ? कहते हुए उनके कमरे की तरफ गया और दादा जी को उस कुर्सी पर बिठाकर बाहर ले आया। देखिए ,पापा जी ! हमारे दादाजी अब कैसे लग रहे हैं ?

 नरेंद्र जी , अपने पिता को उसे कुर्सी पर बैठे  देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले -यह तूने बहुत अच्छा किया, यह बात मेरे दिमाग में नहीं आई। 

गोविंद जी बोले -जब किसी को कोई कार्य करने की चाहत होती है तो दिमाग भी चल पड़ता है, तूने तो सोच लिया बीमार आप है पड़ा रहेगा , अब मेरे पोते को ही मेरी चिंता हुई, तुझे तो पढ़ा लिखा कर मैंने  बेकार में ही पैसा गँवाया। वे अपने पोते के इस व्यवहार से बहुत ही प्रसन्न थे। अपने पिता की डांट खाकर, भी नरेंद्र जी को कोई दुख नहीं हुआ। नितिन की तरफ देखते हुए बोले -इन्होंने तो एक बार डाँटा है, तेरी मां तो सारा दिन डांटती है। अब मुझे आदत पड़ गई है कहते हुए हंसने लगे। 

नितिन घर का कुछ सामान लेने के लिए बाजार गया था, साथ में उसके पिता भी थे। तभी उन्होंने देखा आप बाजार में कुछ लोग, इकट्ठा खड़े हुए हैं। इतनी भीड़ क्यों है ? नितिन ने अपने पिता की तरफ देख कर कहा। 

मुझे क्या मालूम ? मैं भी तो तेरे साथ ही आ रहा हूं , हमें क्या ? चलो ,सामान खरीदते हैं। 

तभी उन्हें किसी लड़की के चीखने की आवाज सुनाई दी। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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