वो घर, जिसमें माता -पिता
और' मैं 'थे ।
मेरे भाई -बहन ,ढूंढते ,मुझे
उस घर के कोने -कोने में।
मैं छिपी होती ,कहीं माँ के दिल में,
पापा की भावनाओं में ,
मैं अपने घर को सजाती -संवारती ,
डोलती ,अपने सपनों की दुनिया में ,
लेती ,पापा के अरमानों की उड़ान ,
लेती सुकून की नींदे ,
न कोई फिक्र, न चिंता।
उड़ान भरती, जीवन के ,
बड़े सपनों से ,घिरी होती ,
अपने आप से ,अपनों से।
ये कोई रेत का 'घरौंदा' नहीं ,
मेरी असली पहचान है ,ये !
धरातल पर रहकर ही ,
मैंने उसे बनते- संवरते देखा।
बचपन का वो मेरा घर ,
कितना प्यारा ,कितना सुकून भरा ?
सपनों जैसा हरा -भरा ,
जिसमें माँ का लाड़ -दुलार ,
पापा का प्यार भरा ,
बहन -भाइयों की लुका -छुपी,
सहेली संग खेली ,गुड्डा -गुड्डी।
जीवनभर यही चलता है ,
फिर भी बचपन का घर ,
अच्छा लगता है।