माँ... ओ माँ..... !अपने विद्यालय से आते ही अपना बस्ता चारपाई पर फेंककर, माँ को आवाज़ लगाती। उसके सिवा मेरी ,देखभाल करता ही कौन था ?वो ही मेरे लिए दूध में मकई की रोटी भिगोकर रखती। कहती -आएगी तो ,खुश होकर खा लेगी।छाछ भी मैंने वहीं पीना सीखा। कहने को तो दादी थी ,किन्तु उसे मैं क्या सभी 'माँ 'बुलाते थे ?मेरा छोटा भाई आया था , तब मम्मी के पास से मुझे लेकर आ गयी कि तू दोनों बच्चों को अकेली नहीं संभाल पायेगी। उनका मुझसे कुछ अत्यधिक ही लगाव था। शहर से गांव ले आईं । वो चाहती थीं - कि शहर में रहकर भी, मैं अपने गांव को न भूलूँ। मेरा मन लग जाये ,इसी कारण पूरे गांव में घुमाती थीं । और रिश्तों से परिचित कराती थी ,अपने खेत भी दिखाए और पेड़ -पौधों की जानकारी भी देती थी। आज सोचती हूँ -तो लगता है ,वे मुझे अपनी गांव की मिटटी का एहसास कराती थीं ,मैं अपने लोगों से जुडी रहूं ,वो अपनापन और प्रेम जो आज तक भी शहर में नहीं मिला ।
उनके न जाने कुनबे, परिवार में ही कितने पोते -पोती होंगे ?मुझे अँगुलियों पर गिनाती थीं ,मुझे भी कुछ स्मरण रहते ,कुछ भूल जाती। दशहरे का मेला दिखाने ले जातीं ,वहीं पर मैंने पहली बार सांझी भी देखी और बनाई भी। चिकनी मिटटी जोहड़ से लाना ,उस मिटटी को तैयार करके, उससे सांझी बनाना मैंने सब वहीं देखा। कैसे बाबा सन को पानी से निकालकर रस्सी बटते थे ?कैसे गन्ने की छोल के लिए मजदूर बुलाये जाते ?और सभी नौकरों और घरवालों का खाना खेतों पर ही जाता। वहां कोई नौकर नहीं दीखता था ,सभी एक साथ कार्य करते और एक साथ भोजन करते। मुँह अँधेरे ही खेतों पर चले जाते और धूप तेज होने तक वापस भी आ जाते।
हम अपने गांव से दूसरे गांव पढ़ने जाते थे ,एक दिन तेज धूप मुझे धूप बर्दाश्त नहीं हुई और मेरी तबियत बिगड़ने लगी। सभी साथ की लड़कियों ने घर जाकर बताया- कि आपकी पोती की तबियत ठीक नहीं ,तभी दादी पानी का लोटा लेकर ,उसी रास्ते पैदल ही दौड़ी चली आई। मैं उस समय सिर घूमने के कारण पेड़ की छाँव में बैठ -बैठकर आ रही थी। तब मैंने दूर से ही'' माँ ''को आते देखा। सूती धोती में पतली -दुबली ,गौरी -चिट्टी ,हाथ में जल का लोटा लिए तेज गति से चली आ रही हैं। मेरे पास आकर मेरा पसीना पोंछा और पानी पिलाया। उस दिन आप विश्वास नहीं करेंगे -मैं पूरा लोटा भरा पानी पी गयी ,तब उन्होंने मेरा भारी बस्ता अपने कंधों पर लटकाया और दो -चार बातें हमारे विद्यालय की अध्यापिका को मुँह में ही बुदबुदाकर कहीं -इतने छोटे बच्चों से इतनी सारी पुस्तकें मंगवाती हैं ,स्वयं तो कुछ करती नहीं। बच्चे बोझ में मरे जा रहे है ,इतनी छोटी बालक और बस्ता इतना भारी ।
मुझे गांव के विवाह भी दिखलाये ,कैसे महिलायें बिना चलचित्र और बिना दूरदर्शन के अपना मनोरंजन करती हैं ,नाच -गाकर ,हँसी -ठिठौली करके ,सब इकट्ठा होकर एक -दूसरे का सहयोग भी करतीं वो भी प्रसन्न होकर।एक के घर की बारात पूरे गांव की बारात होती थी ,आज की तरह मंडप या 'फॉर्म हाउस '' नहीं थे। एक दूसरे के सहयोग से ही सारा इंतजाम हो जाता था। दूसरे के घेरों में भी मेहमान रुक जाते थे। उनके कपड़े चारपाई सभी की तैयारी होती थी। उस समय ''वेटर'' नहीं गाँव के लड़के या जो भी रिश्ते में होते थे ,वही बारात की आवभगत करने के लिए तत्पर रहते। आज की तरह ''करवा चौथ '''अहोई के कलेंडर नहीं होते थे ,अपने ही हाथों से दीवारों पर गेरुए रंग से चित्रकारी भी करतीं थीं ।क्या आप जानते हैं ?खड़िया क्या होता है ? खड़िया भी मैंने पहली बार वहीं देखी ,वो दीवार को पोतने के काम भी आती है और लिखने के भी।
इस प्रकार मैंने एक बरस गांव में रहकर गांव का वातावरण देखा और महसूस भी किया जो मेरी दादी सदैव ही चाहती थी। इसके पश्चात मुझे मेरी मम्मी ने अपने पास बुला लिया ,उनके अनुसार- गांव में रहकर मैं भी गंवार हो जाऊंगी। ''माँ ''अक्सर हमारे पास भी आती किन्तु उनका मन तो अपने गांव में ही बसता था। मुझे अक्सर वहाँ की बातें बतातीं और प्रसन्न भी होती- कि मैं उनकी बातों में दिलचस्पी लेती हूँ। मेरे विवाह पर भी आईं थीं, किन्तु मेरे न रहने के कारण ,वो शीघ्र ही गांव चली गयीं। एक बार आयीं तो मुझसे गले मिलीं और रोने लगीं ,उन्हें आजकल के बच्चों से शिकायत थी ,गांव में अब कोई रहना नहीं चाहता ,सब शहरी बनना चाहते हैं और न ही आजकल के बच्चे ,अपने बड़े -बूढ़ों की बातों पर ध्यान देते हैं।
एक दिन पापा का फोन आया ,कि गांव चलो ! ,तुम्हारी दादी ने बुलाया है ,बीमार हैं ,तुमसे मिलना चाहती हैं ।शायद मुझे उनके पास पहुंचने में देरी हो गयी और वो मुझसे बिना मिले ही चली गयीं। जब तक मैं गाँव पहुँची ''वो मुझे छोड़कर जा चुकी थीं। ''यही है ,हमारी दादी -पोती की कहानी ,''वो मुझे छोड़कर जा चुकी हैं, किन्तु आज भी मेरी स्मृतियों में जिन्दा हैं।