नम्बरदार तेजपाल सिंह के यहाँ जैसे खुशियों ने कदम रखा ,उनके घर के आगे ढ़ोल बज रहा है। देखने के लिए गांव के लोग धीरे -धीरे इकट्ठा होने लगे। पता चला , उनका पोता 'अभियंता 'बन गया है। वो अपने बेटे को 'अभियंता ''बनाना चाहते थे ,वो गया भी ,पता नहीं कैसे ?उसका मन अपनी शिक्षा में नहीं लगा और बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़कर आ गया। तेजपाल जी के अरमानों पर उनके अपने ही बेटे ने ''पानी फेर दिया।'' बहुत दिनों तक इस दुःख से उबर नहीं पाए, पत्नी ने समझाया -जितना नसीब में लिखा होता है ,उससे अधिक नहीं मिलता या ये भी हो सकता है कि ऊपरवाले ने कुछ अच्छा ही सोचा होगा। निर्मला देवी की तो जैसे बात सही हो गयी। तेजपाल जी को कार्य करते हुए बिजली का करंट लगा और बड़ी मुश्किलों से उनकी जान बचाई जा सकी। अब तो देवेंद्र ने ही सारा काम संभाला। तेजपाल जी सोचते थे कि बेटा अभियंता बन जायेगा ,मेरा सर गर्व से ऊँचा हो जायेगा ,यहाँ मैं सब संभाल लूँगा किन्तु भाग्य का लिखा कौन बाँच सका है ?मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं, सोचता कुछ है और हो कुछ और जाता है। समय अपनी गति से चलता रहा और उनका पोता भी बाहर पढ़ने गया और आज ''अभियंता'' बनकर लोेटा है ,उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं और इसी कारण पूरे गाँव में मिठाई बाँटी जा रही है ,जो इच्छाएँ बेटा पूरी न कर सका वो पोते ने पूरी कर दी। तपन अपने बाबा और पिता के आशीर्वाद से अनजान शहर में अपनी ज़िंदगी की शुरुआत करने चला गया। वहाँ उसे सरकारी मकान और काम करने के लिए नौकर मिल गए। ये बात उसके लिए नई नहीं थी, उसके पिता के यहां भी नौकर -चाकर लगे थे इसीलिए उसके जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं आया किन्तु जो उसके लिए काम करते थे उनकी सुख -सुविधाओं ,परेशानियों का ध्यान रखता था। ये संस्कार उसे अपने परिवार से ही मिले थे।
बेटा पढ़ -लिखकर उन्नति करे और उसका घर बस जाये ,माता -पिता की यही लालसा होती है।बेटा यदि क़ामयाब हो भी जाये तो उसे सहेजने की चिंता हो जाती है ,जब तक पढ़ता है, तब तक उसकी उन्नति के लिया प्रार्थना करता हेे किन्तु कामयाब होने पर और अधिक चिंतित हो जाता है, जैसे कोई अपनी बहुमूल्य वस्तु के लिए चिंतित रहता है ,कि कहीं कोई उसे चुरा न ले ,उससे बचाने के लिए उसकी इच्छा जाग्रत होती है कि क्यों न इसका विवाह ही कर दिया जाये , यही लालसा तपन के मम्मी -पापा की भी जाग्रत हो गयी और चिंता भी कहीं अकेला बाहर रहकर लड़का किसी लड़की के झाँसे में न आ जाये और उन्होंने एक सुंदर ,सुशील लड़की की तलाश आरम्भ कर दी।किसी अच्छे ख़ानदानी परिवार की लड़की से उसका विवाह करा दिया। माता -पिता की अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूर्ण हुईं। लड़की सुंदर ही नहीं ,बहुत सुंदर थी ,दोनों ही अच्छे परिवार से रहन -सहन उच्च स्तर का था। अभी तो किसी चीज़ आवश्यकता होती तो चीज़ हाजिर हो जाती। समय के साथ परिवार बढ़ा ,खर्चे भी बढ़े और महँगाई भी ,तपन के यहां लड़के की लालसा के कारण चार लड़कियाँ आ गयीं ,उसके पश्चात पिता ने पुत्र का मुख देखा ,चार बहनों का बोझ अकेला भाई कैसे उठायेगा ?इस कारण एक बेटा और आ गया। छः बच्चों की शिक्षा ,उनका लालन -पालन कोई आसान कार्य नहीं। उधर माता -पिता भी नहीं रहे ,खेती -बाड़ी कौन संभाले ?पुरखों की ज़मीन ऐसे ही बर्बाद जायेगी ,यही सोचकर तपन ने उसमें बाग़ लगवा दिया ,वर्षभर में उसकी आमदनी आ जाती। तपन पुराने विचारों वाले व्यक्ति नहीं थे ,उन्होंने बेटियों को भी उसी तरह पढ़ाया जिस तरह लड़कों को पढ़ाते। बेटियाँ भी पढ़ने में होशियार थीं और आगे बढ़ती जा रहीं थीं। तपन की उन्नति भी हो रही थी फिर भी परेशान थे कारण जिस प्रकार बेटियां आगे बढ़ और पढ़ रहीं थीं ,उसी तरह से बेटे आगे नहीं बढ़ रहे थे। तपन को आरम्भ से ही कम बोलने की आदत थी ,वो जब भी बोलते तो सभी शांत हो जाते और उनकी बातों का अनुसरण करते किन्तु ये दोनों बच्चे , एक -दो दिन तो शांत रहकर पढ़ते किन्तु फिर से वो ही लापरवाही। बहुत समझाने पर भी उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए कहा जा रहा है।
इन बातों को लेकर अक़्सर दोनों -पति -पत्नी में झड़प हो जाती। तपन कहते -ये दोनों नालायक लड़के तुम पर गए हैं ,क्या संस्कार दिए हैं ,तुमने ?न ही किसी की सुनते हैं ,न ही इन्हें अपने भविष्य की चिंता है ,क्या करके खाएंगे ?शांति भी कहाँ सुनने वाली थी ,कहती -तुमने ही कौन सा तीर मार लिए ?-देखा नहीं तुम्हारे नीचे जो काम करते हैं ,उन्होंने भी कोठियाँ बना लीं और तुमने ये छोटा सा ,आवास -विकास का मकान ले लिया। तपन कहते -तो क्या मैं ,अपने काम से गद्दारी करूं ,सरकार का जो काम करते हैं ,उसका पैसा देती है ,न। तभी तो कहता हूँ ,ये दोनों तुम पर ही गए हैं ,मेहनत तो करना नहीं चाहते, बस बैठे -बिठाये खाने को मिलता रहे ,इनकी बहनें हैं ,पढ़ भी रहीं हैं और नौकरी भी ,वे अपनी ज़िम्मेदारी समझती हैं ,उन्हें पता है, जितनी भी कमाई है ,हमारी शिक्षा और फिर विवाह पर भी तो खर्चा होगा।ये सब बातें छोटा बेटा सुन रहा था , तभी पास आकर बोला -हमारे लिए कर ही क्या रहे हैं ,इन्हें [बहनों के लिए ]ही पढ़ाया और सारी कमाई इनके विवाह में लगा देंगे। तपन को क्रोध आया बोले -कुछ भी संस्कार नहीं हैं इनमें ,ये तो है नहीं कि अपनी बहनों की तरह मेहनत करके पढ़ें और यहां अपने पिता से ज़ुबान लड़ाना अवश्य सीख़ गए हैं साहब ,बड़े बाप की औलाद हैं ,झगड़ेंगे ,किन्तु मेहनत नहीं करेंगे। लुढ़क -लुढ़क कर दसवीं पास कर ली है ,आगे तो राम ही जाने कहकर बाहर निकल गए। मन बड़ा अशांत है ,क्या होगा इनका ?खेती भी नहीं आती, जीवन में पता नहीं कितनी ठोकरें खानी पड़ जाएँ ?मैं भी कब तक कमाऊँगा ?मेरी नौकरी के अभी दस बरस हैं ,इन्हीं दिनों में अभी दो बेटियों का विवाह करना है ,ये दोनों कहीं लग जाते तो चिंता मुक्त हो जाता ,किसी से कहूँ भी तो क्या ?बिना किसी जानकारी के नौकरी कहाँ मिलेगी ?छोटा -मोटा कोई काम करना नहीं चाहते। आज वो अपने को बड़ा बेबस महसूस कर रहे थे। लग रह था ,जैसे जीवन व्यर्थ ही चला गया। दादा -पिता का सपना पूर्ण करने के लिए रात -दिन एक कर दिया ,उनकी प्रसन्नता में ही अपनी ख़ुशी ढूंढी थी मैंने किन्तु उनके लिए भी तो मैं कुछ नहीं कर पाया ,शांति वैसे तो अच्छे परिवार से थी किन्तु इससे किसी के स्वभाव का थोड़े ही पता चल पाता है। स्वभाव से आराम पसंद और झगड़ालू रही है। माँ को कुछ दिनों के लिए बुला लिया था कि अपने बेटे पास भी रहकर उसका जीवन देख लें। सारा जीवन गांव में ही परिवार के अन्य लोगों के लिए जीती रहीं ,सोचा था ,अब इस उम्र में उन्हें आराम दूंगा किन्तु शांति ने तो उनके जीवन में अशांति ला दी। पिता को भी बुलाना चाहा तो बोले -तू अपनी माँ को ले जा ,मैं यहाँ का काम देख लूँगा तू अपनी माँ को ही शहर दिखा ला ,मुझे तो इसी से शांती मिलेगी किन्तु पंद्रह दिन बाद ही माँ बोली -बेटा तेरे पापा वहां अकेले होंगे ,उनके खाने का ध्यान कौन रखेगा ?मैंने माँ से कई बार पूछा -अभी आप क्यों जाना चाहती हैं ?अभी तो आयी हो ,क्या यहाँ कोई परेशानी है ?किन्तु माँ ने कुछ नहीं कहा और चली गयीं।
मैं जानता था ,माँ ने इसीलिए नहीं बताया ताकि हम दोनों पति -पत्नी में झगड़ा न हो किन्तु मैं देखता था, कि नौकर -चाकर होने पर भी ,शांति माँ से काम कराती थी ,उन्हें वो सम्मान और अपनापन नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिए था। तब कैसे वो हमारे पास रहतीं ?दोनों ने गाँव में रहकर ही दम तोड़ दिया ,मैं उनके लिए भी कुछ नहीं कर सका ,मेरा तो जीवन जैसे निरर्थक ही गया। आँखों से अश्रु बह निकले -पिता तब प्रसन्न होता है जब उसका बेटा उससे आगे बढ़े। तपन के बड़े बेटे की नौकरी लग गयी किन्तु उसे सुन वो चुप ही रहे ,प्रसन्न हों या दुःखी ,जिन्होंने उनके नीचे कार्य किया ,ये उससे भी निचले स्तर पर कार्य करने लगा किन्तु सोचा -'कम से कम अपनी जिम्मेदारियों का एहसास तो हुआ। बेटियाँ अपनी -अपनी ससुराल चली गयीं। दोनों बेटे अब अपने जीवन की लड़ाई लड़ रहे थे ,कोई भी ऐसे में अपनी बेटी देने को तैयार नहीं। उनके परिवार का जो मान -सम्मान गांव में और यहाँ था ,वो अब उनकी बची नौकरी के कारण ही था। वो कहते कुछ नहीं, किन्तु अवसाद ग्रस्त रहते। मन बहुत समझाता -''सबका अपना -अपना कर्म है ,जो जैसा कर्म करेगा ,भोगेगा भी वैसा ही '',किसी के सुख -दुःख के साथी तो बन सकते हो किन्तु कर्मो के नहीं ,जो ये भाग्य में लिखा कर लाये हैं ,वो तो इन्हें ही झेलना होगा ,इन वचनों के साथ ही, सिर को एक झटका देते और अपने अवसाद से लड़ने का प्रयत्न करते। दोनों बहुएँ भी आयीं और मेहनती भी थीं ,उन्होंने अपने परिवार में रहकर ही , जीवन से संघर्ष करना सीखकर आयी थीं। मध्यवर्गीय परिवार में तो जैसे वो लोग , ''संघर्ष ही जीवन है ,सोचकर ही पैदा होते हैं। अपना -अपना कर्म तो सभी करते हैं किन्तु उस कर्म का उसे कितना फ़ल मिलता है? ये उसके भाग्य पर है।
परिवार में आर्थिक तंगी के चलते और बढ़ते ख़र्चों के कारण ,झगड़े हो जाते ,उनकी पेंशन भी उसकी पूर्ति न कर पाती। इसी परेशानी के चलते उन्होंने चाहा जितना कर्म करना था किया अब तो ऊपरवाला सुन ही ले और एक माह की बिमारी के पश्चात वो पंचतत्व में लीन हो गए। बाहर उनके दफ्तर के लोग भी एकत्रित हो गए और भी रिश्तेदार आये। कोई कह रहा था -भले आदमी थे, कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। उनका एक नौकर बोला -कभी हम पर कोई दबाब नहीं डाला ,बाद में भी मदद कर ही देते थे।
उनकी बातें सुन परिवार के लोग दुखी तो थे किन्तु उनके अंदर क्रोध भर गया। समाज के कारण चुपचाप सारी रस्में कीं ,अब तो, माता -पिता वैसे ही नहीं सुहाते जिसमें कि उनके अनुसार तपन ने किया ही क्या था? ऊपर से रिश्तेदारनी ऐसी ,बोली -ज़िंदगी भर अपने ऐशो -आराम की काटी ,'विरासत' में क्या छोड़कर गया ?ये एक छोटा मकान और बेरोज़गार बच्चे। बड़ा साहब था ,वो चाहता तो अपने बच्चों की कहीं भी सिफ़ारिश करके या ले -देकर, इन्हें कहीं भी लगा सकता था किन्तु उसे तो बच्चों को धक्के खिलवाने थे ,उसके मान -सम्मान पर कोई आंच न आये ,कहीं उसकी बेइज़्जती न हो जाये ,इस कारण बच्चों के भविष्य से भी खेल गया । अरे !भाड़ में जाये ऐसी ईमानदारी ,जो ढ़ंग से घर भी न बना सका। उसने दुनिया का ठेका लिया था किन्तु अपने परिवार को चाहे धक्के खाने पड़ें। ये सब बातें उनकी बेटी सुन रही थी जो पिता के जाने के कारण शोक में डूबी थी ,अब उससे रुका नहीं गया ,बोली -रिश्ते में तो आप बड़ी हैं ,किन्तु आपको इतना भी नहीं मालूम कि क्या बात करनी और कहनी है ?हमारे पिता ने ईमानदारी से काम किया इसका हमें गर्व है ,रही बात उनके ऐशो -आराम की, तो उनकी अपनी मेहनत का परिणाम था ,'विरासत 'में उन्होंने हमें शिक्षा दिलवाई ताकि हम अपना अच्छा -बुरा सोच सकें और अपने जीवन में सफल हों। आज ये दोनों भाई भी उनकी तरह मेहनत करके पढ़ते और सफल होते तो ये भी ऐसे ही ऐशो -आराम का जीवन व्यतीत करते। सबके अपने -अपने कर्मो का परिणाम है ,उनको दोष देने से क्या लाभ ?ऐसे ही न जाने कितनी बातें गिना दूँ ?भाइयों से बोली -तुमने उन्हें क्या दिया ?सिवाय दुःख और चिंता के। अपने कर्मों का ठीकरा उनके सिर पर मत फोड़ो ,तुम लोगों में कमी न होती तो ये ताईजी आज इस तरह हमारे बाप की मौत का तमाशा न बनातीं यह कहकर उसने उन रिश्तेदार को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
उनकी बातें सुन परिवार के लोग दुखी तो थे किन्तु उनके अंदर क्रोध भर गया। समाज के कारण चुपचाप सारी रस्में कीं ,अब तो, माता -पिता वैसे ही नहीं सुहाते जिसमें कि उनके अनुसार तपन ने किया ही क्या था? ऊपर से रिश्तेदारनी ऐसी ,बोली -ज़िंदगी भर अपने ऐशो -आराम की काटी ,'विरासत' में क्या छोड़कर गया ?ये एक छोटा मकान और बेरोज़गार बच्चे। बड़ा साहब था ,वो चाहता तो अपने बच्चों की कहीं भी सिफ़ारिश करके या ले -देकर, इन्हें कहीं भी लगा सकता था किन्तु उसे तो बच्चों को धक्के खिलवाने थे ,उसके मान -सम्मान पर कोई आंच न आये ,कहीं उसकी बेइज़्जती न हो जाये ,इस कारण बच्चों के भविष्य से भी खेल गया । अरे !भाड़ में जाये ऐसी ईमानदारी ,जो ढ़ंग से घर भी न बना सका। उसने दुनिया का ठेका लिया था किन्तु अपने परिवार को चाहे धक्के खाने पड़ें। ये सब बातें उनकी बेटी सुन रही थी जो पिता के जाने के कारण शोक में डूबी थी ,अब उससे रुका नहीं गया ,बोली -रिश्ते में तो आप बड़ी हैं ,किन्तु आपको इतना भी नहीं मालूम कि क्या बात करनी और कहनी है ?हमारे पिता ने ईमानदारी से काम किया इसका हमें गर्व है ,रही बात उनके ऐशो -आराम की, तो उनकी अपनी मेहनत का परिणाम था ,'विरासत 'में उन्होंने हमें शिक्षा दिलवाई ताकि हम अपना अच्छा -बुरा सोच सकें और अपने जीवन में सफल हों। आज ये दोनों भाई भी उनकी तरह मेहनत करके पढ़ते और सफल होते तो ये भी ऐसे ही ऐशो -आराम का जीवन व्यतीत करते। सबके अपने -अपने कर्मो का परिणाम है ,उनको दोष देने से क्या लाभ ?ऐसे ही न जाने कितनी बातें गिना दूँ ?भाइयों से बोली -तुमने उन्हें क्या दिया ?सिवाय दुःख और चिंता के। अपने कर्मों का ठीकरा उनके सिर पर मत फोड़ो ,तुम लोगों में कमी न होती तो ये ताईजी आज इस तरह हमारे बाप की मौत का तमाशा न बनातीं यह कहकर उसने उन रिश्तेदार को बाहर का रास्ता दिखा दिया।