Gadha banaam insaan

गधा एक ऐसा जानवर है ,जिसकी गिनती उसके आलसीपन और मूर्खता के लिए की जाती है। यदि कोई व्यक्ति मूर्खतापूर्ण कार्य करता है तो उसे गधों की श्रेणी में डाल दिया जाता है  अथवा गधा नाम से सम्बोधित करने लगेंगे। लोगो ने न जाने कितनी कहावतें ,मुहावरे इस बेचारे जीव पर बना डालीं  । यहां तक की इसे मूर्खता का प्रतीक ही मान लिया और इसकी तुलना मूर्ख व्यक्तियों से ही कर डाली। किन्तु इसने न ही कभी अफ़सोस किया ,न ही दुःख मनाया कि कुछ इंसानी जीव भी इसी की श्रेणी में आ जाते हैं। मेरा तो मानना  है

कि गधों की श्रेणी में आने के लिए ,इंसान को भी इसी की तरह सज्जन होना पड़ेगा ,अपने काम से काम रखना पड़ेगा। इसका कार्य तो खाना और अपने मालिक का कहा मानना  है किन्तु इस मामले में इंसान अभी इसकी बराबरी नहीं कर सका ,इसकी तरह आलसी तो हो सकता है किन्तु अपने 'अहम' को नहीं छोड़ सकता। गधे से ज्यादातर कार्य ,बोझा ढ़ोने में लिया जाता है। कुछ इंसान भी हैं जो सारा दिन ''गधे की तरह लगे रहते हैं।''किन्तु गधा इतना सज्जन है कि उसने कभी भी, इस बात पर कभी कोई प्रश्न नहीं किया कि मेरी तुलना इंसान से क्यों ?अनेक राजनेताओं को भी इसी श्रेणी में डाल देते हैं किन्तु गधे ने कभी नहीं कहा -कि समाज में मेरी भी इज्जत है और इस नेता से मेरी तुलना करके मेरी बेइज्जती न करें। ये तो अच्छा हुआ कि गधों की कोई अदालत नहीं वरन  न जाने कितने इंसानी गधे वहाँ खड़े दिखाई देते ?क्योंकि गधों का काम तो अब मशीनों ने ले लिया है और गधे अब इतने गधे नहीं रहे ,उन पर काम का कोई बोझ नहीं किन्तु यही बोझ अब इंसानों ने ले लिया है। आज का मानव जो इतने' मान 'से रहता है ,वो गधे से कम नहीं उसके लिए तो दिन क्या ,रात क्या ?मेरे विचार से तो पैदाइशी गधा हो जाता है ,ये बात मैं ही नहीं बल्कि एक सज्जन की , ऐसी ही एक दर्द भरी दास्ताँ है --

              वो अपने मित्र के यहॉँ उसके पुत्र होने की बधाई देने गये  ,तब उसने कहा -तूने पुत्र नहीं एक गधे को जन्म दिया है उसकी बात सुनकर वो महाशय बड़े हैरान परेशान हुए कि ये कैसा मित्र है ?जो मेरे बेटे को गधा कह रहा है ,तब उसने बताना आरम्भ किया --हमसे तो अच्छे गधों के दिन हैं ,कम से कम वो अपनी ज़िंदगी गधों की तरह तो जी रहे हैं ,हम इंसान होकर भी इंसान नहीं रहे ,गधों के बच्चे अपना जीवन अपने माता -पिता के साथ ,हरी  घास में लेटकर और दिल दिमाग पर कोई बोझ नहीं ,बचपन तो बचपन की तरह ही बिताते हैं किन्तु मानवरूपी गधे का तो बचपन भी नहीं रहा -बाल्यावस्था में तो ठीक से बोलना भी नहीं आता और उस बेचारे को पाठशाला में डाल दिया जाता है। वो बेचारा बच्चा अपनी माँ और परिवार के लिए रोता  है तो उसे लॉलीपॉप 'और टॉफी देकर बहलाया जाता है जिस प्रकार बकरे को हलाल करने से पहले उसे खिलाया -पिलाया जाता है ,उसी प्रकार इस  भावी इंसानी गधे को टॉफी और लॉलीपॉप से बहलाया जाता है और तब उस पाठशाला में भावी  गधे तैयार होते हैं। वैसे मास्टरजी कभी -कभी ग़लती होने पर ,छड़ी मारते हुए कहते -''मैंने अच्छे -अच्छे गधों को इंसान बना दिया। ''तब मुझे एहसास हुआ कि ये जो इंसानी रूप में घूम रहे हैं ,पहले गधे ही थे।गधा जभी दुलत्ती मारता है जब उसे कोई परेशान करता है किन्तु  इंसानी रूपी गधे तो अपना स्वार्थ सिद्ध होते ही लतियाते हैं। यदि कोई व्यक्ति उधार मांगता है तो ठीक, किन्तु जब उससे पैसे मांगने जाते हैं ,तो ऐसे भागता है, जैसे कोई गधा रस्सी तुड़ाकर भागता है। उसके पीछे दौड़ते -दौड़ते थक जाओगे किन्तु वो हाथ नहीं आयेगा। 
                  बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तब उस पर बस्ते का बोझ डाल दिया जाता है ,जैसे गधे को हरी -हरी घास दिखाकर  उससे काम कराया जाता है ,उसी प्रकार बचपन में ही टॉफ़ी ,चॉकलेट का लालच देकर उसे उस पाठशाला  की आदत डाली जाती है ताकि वो आगे की तैयारी कर सके। बचपन क्या होता है ?ये तो गधे के बच्चे को भी पता होगा किन्तु इंसान के बच्चे को नहीं ,उसका बचपन तो दो कमरों के मकान और पाठशाला में ही बीतता है। जहां नौकरी पेशा पति -पत्नी यानि उसके  माता -पिता, जिनसे मिलने का भी समय होता है ,छुट्टी वाले दिन भी ,बाक़ी के सप्ताहभर के रुके  कार्यों में बीत जाता है। पाठशाला में हम उम्र गधे मिल ही जाते हैं ,बहुत से तो इन  परिस्थितियों में अपने को ढ़ाल लेते हैं ,बहुतों को समय लगता है ,ये समझने के लिए कि तुम्हारी बाक़ी की ज़िंदगी गधों की तरह ही बीतनी है। विद्यालय और कॉलिज की प्रक्रियाओँ से गुजरते हुए ,हम आगे बढ़ने का प्रयत्न भी करते हैं। कई बार उन प्रक्रियाओँ में पिछड़ भी जाते हैं या यूँ कहें, कि हम भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहते ,हम अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहते हैं कि हम गधे नहीं इंसान हैं ,हमें इंसान ही रहने दें। इस विरोध के कारण हमें माता -पिता की चिंता और उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है। कुछ तो निराश होकर कायरतापूर्ण कहूँ या हिम्मत ?अपने स्वाभिमान के लिए आत्महत्या का रुख़ भी अपना लेते हैं, इस मामले में हम गधों से अलग हैं ,क्योंकि गधे जीवनभर कार्य करेंगे किन्तु आत्महत्या नहीं। बाद में समय के साथ -साथ सभी समझौता कर लेते हैं और भीड़ का हिस्सा बनने लगते हैं। इस भीड़  में कुछ राजनीति में आ जाते हैं बल्कि ये तो उतने पढ़े -लिखे भी नहीं होते वरन ये तो पढ़े -लिखों पर राज करने के लिए होते हैं। राजनीति तो ऐसी ख़तरनाक होती है यदि इसमें किसी को भी गधा साबित कर दिया तो वो चाहे कितने भी अच्छे परिवार से हो ,कितना भी पैसेवाला हो ?उसे गधों का राजा साबित करके ही रहते हैं क्योंकि राजनीति भी इतनी आसान नहीं उसमें एक से एक चतुर ,,,,,,,,होते हैं वे अपनी चतुराई के कारण पहचाने ही नहीं जाते कि कौन कितना बड़ा गधा है ?तभी तो कहावत बनी -''अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान। ''गधे तो अन्य जगहों पर भी मिल जाते हैं ,अलग -अलग श्रेणियों में ,जो अन्य स्थानों पर भी अपना भाग्य आजमाते हैं।माता -पिता भी  कई -कई लाख लगाकर,और बच्चे  रात -दिन अपनी किताबों में आँखें गड़ाये रहते हैं ,तब जाकर कोई अभियंता ,कोई सुरक्षाकर्मी ,कोई डॉक्टर ,या फिर गधों को इंसान बनाने वाले अध्यापक बन जाते हैं और स्वयं पैसा कमाने की मशीन बन जाते हैं क्योंकि इन सभी को अपनी इच्छाओं और महंगाई से जो जूझना होता है। 

                 रात -दिन मेहनत करके ,पढ़े -लिखे नौकर गधे तैयार होते हैं ,माँ -बाप प्रसन्न होते हैं कि हमने देश और समाज के लिए एक गधा तैयार कर दिया जो जीवनभर कमायेगा और विभिन्न' कर 'और' किश्तें' भरता रहेगा। इस तरह संतुष्ट होकर फिर माता -पिता पुनः  चिंतित होते हैं कि परिवार कैसे आगे बढ़ेगा ?उसमें बेटे को उसकी ख़ुशी का लालच देकर ,अपना परिवार या यूँ कहें अपनी नस्लें आगे बढ़ाने की चिंता होती है ,किन्तु दर्शाते यही हैं कि  बेटे की प्रसन्नता इसी में है और वो निरीह जानवर ,दो पाटों के बीच पीसकर रह जाता है। पहले माता -पिता की इच्छाएँ पूर्ण करता है और अब भी उसे चैन नहीं और अब अपनी बाक़ी की बची हुई ज़िंदगी को काटने के लिए विवश हो जाता है। सारी मेहनत की कमाई पत्नी के हाथ में ,जिस कमाई को पाने के लिए इतनी तत्परता से मेहनत की ,उसका फ़ल तो कोई दूसरा ले जाता है,उसी के लिए ताउम्र कमाना है।  घर में काम ,बाहर काम और घर में आकर बैठ भी जाओ तो ये अभी यहॉँ क्यों है ?पड़ोसन का पति तो इनसे ज्यादा कमाता है तब जो भी समय बचता है ,उसमें भी दूसरी जगह से कमा ले। महंगाई का बोझ तो वैसे ही कमर तोड़ रहा है ऊपर से जिम्मेदारियों के बिलों का बोझ भी जीवनभर उठाता रहता है फिर भी उसे वो सम्मान ,वो सुख प्राप्त नहीं होता जिसका वो अपने को अधिकारी समझता है। गधा भी कभी -कभी मजे में रह लेता होगा ,हरी -हरी घास खाकर मिटटी में मजे से लेटता होगा क्योंकि वो नाम का ही गधा रह गया है ,उसका स्थान तो अब इंसानी गधों ने ले लिया है। वो अपने कार्य से मुक्ति भी पा  लेता है और आराम करता है किन्तु ये गधे तो ,अब डिजिटल गधे हो गए हैं जो स्वयं भी अपने को व्यस्त रखते हैं।एक गधा दूसरे को पोस्ट या संदेश भेजता है ,इस' जीवन में कुछ नहीं ,सब व्यर्थ की माया है' किन्तु उस माया को स्वयं ही नहीं छोड़ पाता और अन्य मायाओं के' मोह जाल 'में फंस जाता है।  कभी -कभी तो रात में भी काम करना होता है, इनका न दिन होता है न ही रात का पता चलता है और अंत में उसे एहसास होता है कि तू तो गधे का गधा ही रहा। ये सब तू क्यों और किसलिए कर रहा था ?तब उसके पास कोई उत्तर नहीं होता।  




















  
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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