ज्ञान सबको होना चाहिए ,सामाजिक ज्ञान तो सबको होता है। ये मेरा बेटा है ,मेरा परिवार है किन्तु जिस ज्ञान की बात मैं कर रही हूँ। वो ज्ञान ,जैसा' अष्टावक्र 'को माँ के गर्भ में ही हो गया था ,वैसा ज्ञान जो महाभारत के युद्ध में अर्जुन को भगवान '' कृष्ण ''ने दिया। वो आत्मिक ज्ञान ,जो राजा दशरथ को उनके गुरु 'अष्टावक्र 'मात्र तीन दिनों में करा दिया। ज्ञान के बिना जीवन ऐसा है ,जैसे कहीं अँधेरे में हम किसी भी रास्ते पर चले जा रहे हैं। पाँव में कंकड़ चुभा या कांच अथवा किस गली जाना है या किस मोेहल्ले पहुंचे ?कुछ नहीं मालूम। बस अँधेरी गलियों में हम चले जा रहे हैं ,चले जा रहे हैं । ज्ञान पर सबका समान अधिकार होता है। ज्ञान किसी की बपौती नहीं ,ये इंसानों के लिए ही है ,वो चाहे किसी भी धर्म अथवा मज़हब का हो। बस अपने आपको पहचानने की आवश्यकता है कि हम क्या सोचते हैं ?क्या चाहते हैं ?ज्ञान के बिना मनुष्य बिन सींग और बिन पूँछ वाले जानवर की तरह है। इसका वर्णन तो पहले ही किया जा चुका है --''येषां न विद्या न तपो न दानम ,ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः ''ये ज्ञान मानसिक उन्नति से ऊपर का ज्ञान है
'',आध्यात्मिक ज्ञान ''.ज्ञान की कोई सीमा नहीं ,ये तो अनन्त है ,यह किसी व्यक्ति विशेष के लिए भी नहीं। यह किसी जाति -पाती में भी नहीं बंधा। इसका उदाहरण-'' संत कबीर ''जो एक जुलाहे थे ,''संत रैदास'' जो मोची का कार्य करते थे। किसी भी धर्म की कटटरता भी इसे नहीं बांध सकती।
'',आध्यात्मिक ज्ञान ''.ज्ञान की कोई सीमा नहीं ,ये तो अनन्त है ,यह किसी व्यक्ति विशेष के लिए भी नहीं। यह किसी जाति -पाती में भी नहीं बंधा। इसका उदाहरण-'' संत कबीर ''जो एक जुलाहे थे ,''संत रैदास'' जो मोची का कार्य करते थे। किसी भी धर्म की कटटरता भी इसे नहीं बांध सकती।
ये तो ''ज्ञान गंगा ''है ,ये आप पर निर्भर करता है कि इस'' ज्ञान गंगा ''में आप कितने गोते लगाते हैं ?कितना ग्रहण करते हैं ? शांत मन से यदि सम्भव हो सके तो परिवार के सभी' जन' इस गंगा में प्रवेश करें किन्तु हर कोई अर्जुन तो नहीं बन जाता, कुछ भीम , और युधिष्ठिर भी बनते हैं। गुरु द्वारा ''ज्ञान वर्षा ''तो सभी पर समान रूप से होती है।ये हम पर निर्भर करता है कि इसमें हम कितना भीगते हैं ?मनुष्य अपने जीवन में कुछ न कुछ सीखता ही रहता है --कभी व्यवहार से ,कभी वाक्य सुनकर ,समाज से ,परिवार से, फिर अपनी एक सोच बना लेता है। मनुष्य शब्द के शुरुआत में ही' मन' शब्द आता है और मनुष्य का मन किस ओर जाता है ,क्या गृहण करता है ?ये उस पर निर्भर करता है। इसी का एक उदाहरण मैं आपको कहानी के रूप में देती हूँ --
एक दरोगा जी थे ,उनका कार्यक्षेत्र तो दूसरे शहर में था ,परिवार दूसरे शहर में रहता था। जब भी वो अपने परिवार से मिलने आते और घर के लिए सामान लाते ,तब अपने पुलिस के वस्त्र पहनकर जाते ,साथ में अपने बेटे को भी ले जाते। जब वो सामान लेते तो लोगों को जतला देते, कि वर्दी वाला हूँ, जिस कारण कुछ दुकानदार कम पैसों में सामान देते अथवा कोई -कोई तो मुफ़्त में ही दे देता। उनका बेटा ये सब देखता रहता। उन्होंने उसे सिखाया नहीं, किन्तु बेटा उनके व्यवहार से सीख गया। उसने ये नहीं सोचा-'' कि मैं भी पढ़ -लिखकर बड़ा आदमी बनूँ और लोग हमसे डरें नहीं वरन सम्मान करें।'' वरन उसने ये सीखा कि उसके पिता का रौब है ,इसी कारण लोग डरकर सामान सस्ते में या मुफ़्त में दे देते हैं। इतना तो वो समय के साथ सीख गया -कि लोगों को डराओ तो डरते हैं, ऊपर से पिता की नौकरी। इस कारण उसमें अहंकार की भावना उत्प्नन हो गयी। उसने ये नहीं सोचा ,कि पिता की स्थिति में आने के लिए कितनी मेहनत और कितना पढ़ना पड़ता है ?वरन इसके विपरीत गृहण किया -बड़े घर का बेटा हूँ ,बाप दरोगा है ,मुझे कौन रोक सकता है ?उम्र के साथ उसने अपने खर्चे बढ़ा लिए ,दोस्तों को दिखाने के लिए ,अहंकार के वशीभूत होकर, जिन दुकानों पर पिता के साथ जाता था ,उनसे कुछ रूपये मांगे। उन्होंने उसे पहचानकर कुछ पैसे दे भी दिए। अब तो जैसे शेर के मुँह खून लग गया और वो अक्सर ही वहां जाने लगा। उसके इस तरह बार -बार जाने पर लोग परेशान हो उठे और उन्होंने उसका विरोध करना प्रारम्भ किया जिस कारण उसके अहं को चोट लगी, उसे क्रोध आया और बात हाथापाई तक पहुंच गयी, जिसके परिणामस्वरूप लोगो ने उसकी शिकायत थाने में कर दी। उसके पीछे सिपाही लग गए ,जब ये बात पिता को पता चली तो अपनी जान -पहचान से किसी भी तरह उसे छुड़वा लिया। अब तो जब भी उसे पैसा नहीं मिलता वो चोरी करता या जबरदस्ती से लेता ,उसके पिता के कारण उसे दो बार छोड़ा भी गया किन्तु अब उसपर किसी भी तरह का कोई असर नहीं पड़ता। अब तो हाल ये था कि वो आगे -आगे ,पुलिस पीछे -पीछे। इस उदाहरण से क्या पता चला ? कि हम क्या गृहण करते हैं ? ये हम पर निर्भर करता है। उधर पिता सोच रहा था ,मैं बच्चों के साथ नहीं रहता इसीलिए लड़का बिगड़ गया किन्तु उसने अपने कुछ दिनों के व्यवहार से ही उसे बहुत कुछ सीखा दिया था।
इसी तरह ''ज्ञान गंगा ''से हम क्या सीखते हैं ,कितना गृहण करते हैं ,कितना मनन करते हैं ?ये हम पर निर्भर करता है।' सत्संग घरों 'में हम भक्ति -भाव से सेवा करते हैं, वही सेवा हम अपने बूढ़े हो चुके सास -ससुर की क्यों नहीं करते ?भाव वही होना चाहिए ,तो घर ही 'सत्संग घर' बन जाये क्योंकि वो परमात्मा तो हर जगह मौजूद है। भगवान के घर हम सिर ढकते हैं किन्तु घर में बड़ों का सम्मान नहीं। उनके सामने सिर ढकना तो दूर वस्त्र भी अजीब ही पहनेंगे। इसके लिए घर के बड़ों को भी ऐसे कार्य करने चाहिए कि छोटो का सिर स्वतः ही उनके सामने झुक जाये। गुरु कुछ भी कहेंगे, हम चुपचाप स्वीकार कर लेंगे किन्तु घर का बड़ा यदि कोई बात कह दे तो उसे पलटकर जब तक चार जबाब न दे दें ,हमें संतुष्टि नहीं होगी।यहां वातावरण भी अपना असर छोड़ता है। हम अपने व्यवहार से अपने छोटो को क्या सीखा रहे हैं ?क्या हम पढ़े -लिखे गँवार नहीं? जो आधुनिकता की दौड़ में अपने रीति -रिवाज़ ,संस्कार भूलते जा रहे हैं। माता -पिता कोई नहीं चाहता कि उसका बच्चा कुछ ग़लत सीखे किन्तु वो सीख जाता है -समाज से ,हमारे व्यवहार द्वारा अथवा आगे बढ़ने की चाह में ,अपनी एक नई सोच बना लेता है। अब ये उस पर निर्भर करता है, कि वो कौन सी राह चुनता है ,अथवा किस दिशा में जाता है ?
आजकल बेटियां चाहती हैं कि उन्हें पैसेवाला पति मिले ,पति आज्ञाकारी हो ,उसके माता -पिता न हों तो ''सोने पर सुहागा '',हों भी तो अलग रहें ,उनका कोई भी कार्य न करना पड़े किन्तु वे ये नहीं सोचतीं कि ऐसा ''संस्कारी पति ''भी तो उसके सास -ससुर की देन ही है और पैसा उनकी मेहनत के बल पर ही मिला है। यदि वे ऐसे संस्कार न देते तो उनके बेटे , तुम्हें कैसे निबाह लेते ?इज्ज़त और मान के लिए यदि वो चुप हैं ,तो ये उनके संस्कार ही हैं। उनसे कोई पूछे -तुम क्या संस्कार लेकर आई हो ?घर तोडना ,जबरदस्ती किसी की ज़मीन -जायदाद पर अधिकार जतलाना ,उनके पुत्र को उनसे अलग करना। ग़ैर पुरुषों के मध्य मदिरा पान करना ,देर रात तक घर से बाहर रहकर कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाना। ऐसी मायें अपने आगे आने वाली पीढ़ी को क्या संस्कार देंगी ?क्या सिखाएंगी ?जब उन्हें स्वयं ही सही मार्ग नहीं मालूम। ये तो किसी -किसी बच्चे के पूर्व जन्म के संस्कार कह सकते हैं, कि घर का या बाहर का कैसा भी वातावरण हो? किन्तु वो अपनी सही राह चुन ही लेता है। माना कि पैसा हमारी आवश्यकता है किन्तु वो हमारे लिए है ,हम उसके दास नहीं। इसी तरह कुछ लोग रिश्तों को भी पैसे के तराजू में तौलते हैं किन्तु जब रिश्तों की आवश्यकता पड़ती है, तब वे ही काम हैं। ये हमारे समाज के कुछ उदाहरण हैं, जिनका असर हमारी ज़िंदगी और व्यवहार पर पड़ता है और इन सबसे ऊपर उठकर तब हम अपने आपको पहचानने का प्रयत्न करते हैं। ये जीवन भी ज्ञान का अथाह सागर है किन्तु इस संसार में कुछ अशुद्ध ज्ञान मिल जाने कारण खारा हो गया है ,हमें उसमें से शुद्ध ''गंगा ''के पवित्र जल को गृहण करना है ,जो शुद्ध और मीठा हो, जिससे हमारी आत्मतृप्ति हो सके और हमें ''सुखानुभूति ''प्राप्त हो सके।