Darr

हम डरते हैं ,उस ख़ुदा से ,परमात्मा से ,हमें ड़र है ,उसके ख़ौफ से। इंसान तो जैसे अपने को अमर  ही माने बैठा है किन्तु डरता है ,उसकी दी हुई वेदनाओं से ,अपनी पाली हुई परेशानियों से ,इंसान डरता है -धर्म ,मज़हब के नाम पर। प्राकृतिक आपदाओं से उसकी [परमात्मा ]की शक्ति से। डरता है ,अपनी मौत से। कोई भी किसी भी धर्म अथवा मज़हब का हो किन्तु एक बात तो समान है कि वो उसका बनाया मानव है और सभी की मौत निश्चित है। कोई भी किसी भी धर्म का इंसान हो ,चाहे उसे जलाया जाये अथवा दफनाया जाये ,कोई भी मृत्यु को टाल नहीं सकता। ये अटल सत्य है। 
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                  इंसान  जब मानव रूप में जन्म लेता है तो माता के गर्भ से ही पैदा होता है। किसी धर्म विशेष के कारण उसकी उत्पत्ति विशिष्ट नहीं हो जाती। बाल्यावस्था ,युवावस्था और वृद्धावस्था तीनों ही अवस्थाओं में पलता -बढ़ता और मरता है फिर भी वो अपने को अलग क्यों कहता है ?क्या विशिष्टता है ,उसमें ?भगवान को  किसी ने नहीं देखा ,कहाँ रहता है ?किस तरह अपने बंदो के साथ है ?फिर भी वो है। त्रेता युग में अथवा द्वापर युग में ,उसने जन्म भी लिया किन्तु कलयुग में तो उसकी अनुभूति ही हो जाये तो मानव जीवन सफल। या फिर ख़ुदा को किसने देखा ?वो किसी से मिला अथवा बातचीत की अथवा कटटरता पर सम्भाषण किया। कहाँ है ?वो भटके हुओं को राह क्यों नहीं दिखाता ?कहाँ है ?उसका घर। मंदिर ,मस्जिद के नाम पर इंसान ने जगह घेर ली ,वो कहाँ है ?वो तो हमारे ही अंदर है ,अपने अंदर झांककर देखो ,वहीं शांति है ,वो रहता है ,पाक़ दिल में ,वो हमारे साथ है और रहेगा। कोई भी गाउन पहने ,बुरखा पहने ,सूट -सलवार अथवा साड़ी। क्या फ़र्क पड़ता है ?उसने तो नहीं कहा कि तुम मेरे बंदे हो ये पहनो। ये दूसरे से अलग दिखने के लिए हमारी अपनी सोच है अपना पहनावा है। 
                     जीने के लिए कार्य भी करने पड़ते हैं ,क्या भगवान ने ,खुदा ने ,ईशु ने कहा -तुम मेरे बंदे हो ,बिना कर्म किये ही सब सुविधाएँ हासिल होंगी।'श्रीमद भगवत  गीता ,में तो कर्म को ही सर्वोपरि माना  है ,संसार में जितने भी प्राणी ,जीव -जंतु हैं ,हम भी उसी  की बनाई रचना हैं। उसकी कला का नमूना हैं ,अपने -अपने हिसाब से उसी के बताये रास्ते पर चलना है। सभी के दो हाथ,दो पैर और चेहरा है ,फिर हम एक -दूसरे से भिन्न कैसे ?कैसे हम अलग हुए ?ये तो सभी के पास है। हमें फिर लड़ना क्यों है ?धर्म के नाम पर ,राजनीति के नाम पर या ज़मीन हड़पने के नाम पर। क्या ये सब जो बटोर रहा है ?ताबूत में साथ जायेगा या हमारे साथ ही जला दिया जायेगा। बीमारियां भी सबकी एक जैसी ही हैं ,इलाज भी वही ,फिर ये ढोंग क्यों ?
फिर भी इंसान, इंसान को नहीं समझता। क्या ये महामारी ख़ुदा के बंदों को नहीं होगी या प्रभु ईशु के बच्चे इससे दूर हैं  ?या  भगवान के भक्त इससे बच जायेंगे ?उसके लिए तो सभी बराबर हैं। प्रकृति ने तो सभी पर खुलकर अपना खज़ाना लुटाया है -ज़मीन ,प्राकृतिक खाद्यान ,जलवायु सभी को समान रूप से भेजता  है। और 'प्राकृतिक आपदाएँ 'भी सभी से समान रूप से बदला लेतीं हैं। फिर इंसान एक -दूसरे से अलग कैसे ?ये भेदभाव क्यों ?क्या भगवान के बंदे अमर हैं ?ख़ुदा अपने लोगों को नहीं ले जायेगा ?क्या सामाजिक परेशानियां ,खाना -कमाना ,दुःख -दर्द ,शादी -विवाह ,अपनों का बिछोह ,सब समान नहीं। 
               इतिहास गवाह है ,कोई भी राजा हो या रंक कोई भी आज तक अमर  नहीं हुआ ,सभी की त्वचा जलती ,कटती है ,दर्द भी होता है। फिर क्यों डरता है ?इंसान। क्यों एक -दूसरे से घृणा करता है ?क्यों दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है ?क्यों डरता है ,मौत से ?झूठी ज़िंदगी को झूठ के बल पर जीना चाहता है। धोखा -फ़रेब ढोता  है ,अपनी मुश्किलें बढ़ाता है। मात्र एक कठपुतली है ,जो उसकी देन है ,उसके इशारों पर चलती है ,फिर भी पता नहीं किस भ्र्म जी रहा है ?अपने को ही सब कुछ मान बैठा है। जब उसकी मौज होगी अपने पास बुला लेगा। परिवारजन रोते रह जायेंगे ,मिलने को तरसेंगे ,उसे तरस न आएगा। उसने जितना जीवन दिया है जी लिया ,फिर उसकी बारी आती है तो डर  जाता है। सम्पूर्ण जीवन में वो एहसास दिला ही देता है कि 'मैं हूँ ''अभी तुम मुझसे आगे नहीं। कितने भी जाति -धर्मों में बंट जाओ ,मुझे भी कितने ही नामों से पुकारो  ?लेकिन जब मेरी चलती है ,तब किसी की नहीं चलती।इंसान घृणा में इस कदर लिप्त है कि  तुम इंसानों ने तो अपने मरने का साधन भी स्वयं ही बना लिया।जब -जब इंसान प्रकृति के ख़िलाफ़ होगा ,उसे दण्ड तो झेलना ही पड़ेगा। इंसान कितना भी परिश्रम कर ले ?होशियारी अथवा चतुराई दिखा दे  किन्तु उसके सामने सब व्यर्थ है और अंत में मानव सोचने पर मजबूर हो जाता है कि मैं ये अब तक क्यों और किसलिए कर रहा था ?प्रश्नों के उत्तर ढ़ूढ़ता है। किन्तु उसकी बनाई दुनिया के माया -जाल में फँसकर रह जाता है। उसे तो क्या ?इंसान अपने आपको भी नहीं ढूंढ़ पाता है।  

                  उसकी बनाई रचना का मोह -जाल ही ऐसा है। उसके अंदर का भय उस परमात्मा को ढूंढ़ने का प्रयत्न करता है। उसके किये कर्म उसे डराते हैं ,कभी -कभी तो अपने कर्मों के कारण अपने आपसे ही नज़रें चुराता है। उसे मंदिर -मस्जिदों में ढूँढता है किन्तु माया -जाल त्यागना नहीं चाहता किन्तु यही इंसान का शाश्वत सत्य है। भूतों से इंसान डरता है , किन्तु अपने मन की भटकन से नहीं डरता। भगवान हमें नहीं दिखता कल हम न होंगे तो हम भी नहीं दिखेंगे किन्तु होंगे ,उसके पास ,जिसने हमें पैदा किया और अपनी बनाई रचना में भेजा। कार्य समाप्त होने के बाद तो जाना ही है। बस ऐसे कर्म करते रहिये जो उसके पास जाकर ,उससे नज़रें मिला सकें। 


















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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