zindgi apni -apni

इस दुनिया में न जाने कितने लोग हैं ?सबकी अपनी -अपनी ज़िंदगी है ,अपने -अपने ग़म हैं ,अपनी ख़ुशियाँ। ख़ुशियाँ भी अनंत हैं लेकिन उसको मापने के सबके अपने-अपने  मापदंड हैं -कोई पैसे से खुश होता है ,कोई परिवार और अपने लोगों के साथ ,इसी तरह सबके अपने दुःख भी हैं -किसी पर पैसा न होने का दुःख ,कोई सड़क पर है। इसी तरह सुचित्रा का भी दुःख है ,उसके पास पैसा है ,मकान है , घर -परिवार ,सब कुछ तो था उसके पास। नहीं था तो उसकी'' वंश-बेल ''चलाने वाला ,उस घर- परिवार की खुशियों को आगे बढ़ाने वाला  नहीं था। भगवान ने उसे सब कुछ देकर उसकी ममता उससे छीन ली। उसने न जाने कहाँ -कहाँ मन्नत माँगी ?पीर -फ़कीर किसी को नहीं छोड़ा। धीरे -धीरे समय आगे  बढ़ता रहा ,उसके विवाह को दस वर्ष बीत गए ,वो भगवान से पूछती- क्या उसे अधिकार नहीं था कि कोई उसकी गोद में कोई  खेले ?उसके घर -आंगन में भी किलकारियाँ गूँजें। इसी उम्मीद में उसके सास -ससुर भी चले गए। शुरू में तो उसकी सास ने कहा भी -यदि इसके बच्चे नहीं होंगे तो मैं अपने बेटे का दूसरा विवाह करूंगी। सुचित्रा तो पहले से ही परेशान थी ,क्या वो नहीं चाहती थी माँ बनना? किन्तु पता नहीं, भगवान ने क्या सोच रखा है ?

वो तो उसकी हिम्मत उसके पति दीपक बने ,उन्होंने अपनी मम्मी को भी समझाया -किस्मत में होगा तो बच्चा आएगा ,नहीं हुआ तो दूसरा विवाह करके भी नहीं हुआ तो तब तुम क्या करोगी ?वो तो स्वयं ही परेशान है ,क्या वो माँ बनना नहीं चाहती ?मैं दूसरा विवाह कदापि नहीं करूंगा। ऐसे समय में दीपक ही उसकी बुझती उम्मीदों का सहारा थे।दीपक उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते। अब तो सास -ससुर भी नहीं रहे ,दोनों ननदें भी विवाह के बाद, अपनी -अपनी ससुराल चली गयीं।घर में रह गए तो दोनों पति -पत्नी। 
             बीच -बीच में कभी -कभी उसकी ननदें आ जातीं तो घर में रौनक हो जाती ,उनका समय भी कट जाता। अब तो दोनों के बच्चे भी हो गए लेकिन आतीं भी तो अकेली ,बच्चों को घर ही छोड़ आतीं। एक दिन दीपक ने कहा भी -बच्चों से तो रौनक ही होती है और बच्चों को नहीं लातीं ,तब वे कोई न कोई बहाना बना देतीं -क्या भाई ?बच्चे इतने शरारती हो गए हैं ,न ही हमें बातें करने देंगे ,वहां तो हम काम में लगे ही रहते हैं ,यहाँ भी उनके पीछे -पीछे दौड़ना पड़ेगा।दीपक ने कहा -तुम्हारी भाभी है न ,संभाल लेगी, किन्तु बातों ही बातों में कुछ ऐसा निकल जाता ,उन्हें भी अफ़सोस होता ,नहीं भाई ,हमें तो आदत है उनकी शरारतों को झेलने की ,भाभी को नहीं। सही मायने में देखा जाये तो वो बहनों को उनके बच्चों के लिए ही बुलाते थे कि कुछ दिन तो इस  घर में  बच्चों की चहल -पहल हो। उधर उनकी ससुराल में उनकी सास ये कहकर बच्चों को नहीं जाने देती ,-तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है ,इन्हें देखेंगे तो नजर लग जायेगी। पता नहीं भाभी की कैसी नज़र हो? एक -दो बार के बहाने तो चले किन्तु अब वे दोनों भी समझने लगे कि बच्चों को यहाँ जान -बूझकर नहीं लातीं। दोनों पति -पत्नी मन मसोसकर रह जाते लेकिन अपने मन की पीड़ा किसी से नहीं कही। एक दिन दीपक के मन में विचार आया- कि कोई बच्चा गोद ले लेते हैं'' किन्तु सुचित्रा ने मना कर दिया -वो मेरा अपना नहीं होगा ,मैं शायद उसे वो  प्यार न दे पाऊँ। 

               दीपक का तो समय अपने काम में कट जाता था किन्तु सुचित्रा तो अब आस -पड़ोस में भी नहीं जाती ,औरतों के वो ही प्रश्न सुन- सुनकर वो पक चुकी थी ,अब न ही उनके पास प्रश्न थे ,न ही सुचित्रा के पास जबाब। वो अंदर ही अंदर कुंठित होती जा रही थी ,उसका किसी से भी मिलने का दिल नहीं करता। उसे इस बात का भी दुःख था कि मेरे कारण ही ननदें अपने बच्चों को अपने मामा -मामी से मिलाने नहीं लातीं। अपना ग़म ,अपनी परेशानियां तो एक बार को आदमी झेल भी ले लेकिन दूसरों का  व्यवहार उसे माँ न होने का एहसास करा ही देते। जिस कारण वो अंदर ही अंदर घुटती रहती ,अब तो दीपक भी सेवा -निवृत हो चुके ,सारा दिन घर में रहकर  भी वो तो किसी तरह अपना समय व्यतीत कर  लेते किन्तु अब कभी -कभी सुचित्रा के कोप का भाजन बन जाते। धीरे -धीरे वो चिड़चिड़ी होती जा रही थी कभी -कभी दीपक पर झल्ला जाती। उसकी परेशानी समझ दीपक ने समझाया भी -कभी -कभी औलाद भी नालायक़ निकल जाती है, तब भी तो परेशानी होती है। शर्माजी को देखो ,उनका लड़का अपने माता -पिता को इस उम्र में छोड़कर चला गया ,दोनों अकेले रहते हैं ,तो ऐसी औलाद से तो' बेऔलाद' ही सही। सुचित्रा भी ये बात समझती थी किन्तु कहते हैं न-'' जब तक जिस वस्तु की इच्छा हो और वो पूरी न हो ,तो लालसा बढ़ती जाती है '',यही हाल सुचित्रा का हो रहा था।वो सब समझती और जानती थी फिर भी अज़ीब सी बेचैनी उसे घेरे रहती। दीपक चाहते हुए भी ,सुचित्रा के  लिए  कुछ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें भी पत्नी की बेचैनी और अकेलेपन से निराशा होने लगी। कुछ दिनों तक ऐसे बिमार हुए कि फिर उठ न सके अब सुचित्रा अपने अकेलेपन से लड़ने के लिए अकेली रह गयी। न कहीं जाती ,न ही उसके घर कोई आता ,अकेली कब तक उस निर्जन से लगने वाले मकान की दीवारों से सिर टकराती ?कुछ दिनों की बिमारी के बाद वो भी चल बसी। आस -पड़ोस के लोग भी उस घर को मनहूस कहने लगे। जब वो किसी को नहीं दिखी तो किसी ने उसके रिश्तेदारों को ख़बर दे दी कि आकर देख लें। आजकल ज़माना भी ठीक नहीं किसी की भलाई करने चलो ,उल्टे नुकसान हो जाये ,यही सोच कोई उस घर में नहीं घुसा। जब उनके रिश्तेदार आये तो पता चला कि वहाँ तो एक शव के सिवा कुछ नहीं। सुचित्रा की मौत पर सबने अफ़सोस जताया ,कब और कैसे हुयी ?किसी को कुछ नहीं मालूम। रिश्तेदारों को भी इतना समय नहीं था उन्होंने भी कुछ आवश्यक क्रियाएँ कीं और उस घर को औने -पौने दाम में बेचकर चले गए। 

                     बहुत दिनों तक वो घर ऐसे ही बंद पड़ा रहा, किसी को  भी नहीं मालूम कि वो घर अब किसने खरीदा है ,कौन उसका मालिक है ?एक दिन उस घर में साफ -सफाई होने लगी थोड़ी टूट -फूट  के बाद उसका रंग -रोगन करवा दिया गया। मौहल्ले के लोग देखते एक -दूसरे से पूछते - कौन आ रहा है ,किसने लिया है ?दीपावली पर वो  घर में रौशनी से नहा उठा ,सुबह हवन पर कुछ लोग दिखे,आस -पास के  लोगों को निमंत्रण भी आया। कुछ लोग तो यही देखने के उद्देश्य से वहां गए, कि कौन लोग हैं ?कैसे हैं ?वहाँ पहुंचकर उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ये वो ही मकान है ,इसकी कितनी'' कायापलट ''हो गयी। ये सब देखकर लोग इतना तो समझ ही गए कि पैसे वाले लोग हैं। शाम को सबके घर मिठाई भी पहुंच गयी ,अब तो मौहल्ले में होड़ मच गयी ,कौन उनके घर पहले मिठाई भिजवाए ?जो घर कई सालों से मनहूस लग रहा था ,वहां कोई नहीं जाता था ,आज उस घर में बाकि सब घरों से ज्यादा चहल -पहल थी। बाद में लोगों को पता चला ,वो भी अधेड़ उम्र दम्पत्ति हैं ,उनकी दो बेटियाँ हैं ,दोनों ही विवाहित हैं। कुछ दिनों तक तो वो परिवार चर्चा का विषय रहा ,अब लोग उन्हें जानने का प्रयत्न करते। वो महिला सुबह उठती अपने घर की साफ -सफाई कर बग़ीचे में टहलती ,अपने सभी काम स्वयं ही करने का प्रयत्न करती। उनके पति अख़बार पढ़ते और घूमने जाते तो एक -दो मित्र बना ही लेते और अपने घर  ले आते ,उनके लिए भी चाय -नाश्ता बनता। किसी को भी मदद की आवश्यकता पड़ती तो दोनों तत्पर रहते। सभी धार्मिक त्यौहार मिलजुलकर मनाते।' नवरात्रि

'पर अपने घर में भजन -कीर्तन करतीं और महिलाओं को भी बुलाती ,
 वे लोग बुलाते हुए हिचकिचातीं पैसे वाली हैं ,आएँगी भी कि नहीं ,निःसंकोच  उनके घर  चली जातीं। उन्हें तो घर के कामों से, लोगों से मिलने -जुलने के कारण समय ही नहीं था  कि अकेली बैठकर सोचें कि वो दोनों अकेले हैं। छुट्टियों में बेटियों की ससुराल या अन्य रिश्तेदारों से मिलने चले जाते ,उनके लिए फ़ल -मिठाइयाँ और अन्य उपहार लेकर जाते तो वो लोग भी ख़ुश। इसी तरह वो अपनी बातें कर ही रहीं थीं कि दीपमाला जो उनके घर के नज़दीक ही रहती थी और उसी के सामने ही सुचित्रा भी रही लेकिन उसने न ही किसी से संबंध बनाया ,न ही किसी से मिलती थी। एकाएक पूछ बैठी -आंटीजी !आप कैसे इतनी ख़ुश रह लेतीं हैं ?तब वो बोलीं -अपनी -अपनी ज़िंदगी सब जी रहे हैं ,भगवान ने जो दिया सब अच्छा ही है।,दो बेटियां दीं ,लक्ष्मी -सरस्वती जैसी बेटियों की माँ बनाया, उनको पाला -पोसा इसका हमें सौभग्य प्राप्त हुआ ,बेटा नहीं दिया भगवान ने, शायद कुछ अच्छा ही सोचा होगा ,क्या मालूम वो अच्छा नहीं निकलता ? सब ऊपरवाले की दया है ,फिर मुस्कुराकर बोलीं -सबकी अपनी -अपनी ज़िंदगी है ,अब  रोकर जी लें या हँसकर ,ये तो हमारे बस में है। 























    

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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