सब उसे कवि कहकर ही बुलाते ,उसका तो जैसे असली नाम जानते ही नहीं। एक -दो मित्र उसे मिल भी जाते ,पूछते -कहो ,कवि भाई कैसा चल रहा है ? वैसे सब उसके हालात जानते थे कि आर्थिक तंगी बहुत है। कभी -कभी किसी से काम भी मांगता तो असमर्थता जता देते किन्तु उसे अब ज्यादा ही काम की आवश्यकता थी। उसने जानने वालों से ही नहीं न जानने वालों से भी काम माँगा। माँ घर में अकेली ,बेचारी किसी न किसी काम की उधेड़ -बुन में लगी रहती। पिता कमाते थे तो घर का खर्च चल जाता था ,अब तो वो भी नहीं रहे।
आज बहुत ही ठंड है, घिसे -पुराने कपड़ों में कब तक गर्माहट रहेगी ?ठंड के कारण हर व्यक्ति अपने घर में दुबका पड़ा था। ठंड है कि हड्डियों में घुसी जा रही थी ,माँ , बेटे से चोरी -छिपे एक -दो घरों में काम कर आती थी लेकिन अधिक ठंड के कारण वो काम न जा पाई।आज बेटा ही खाने का इंतजाम करने निकला ,सारे दिन धक्के खाने के बाद भी कोई काम न मिला। हताश होकर कुछ खाना लेकर माँ के पास पहुंचा ,बोला -इसे तुम खा लो ,मैंने वहीं खा लिया। बेचारी को क्या पता था, कि जिस लाल को वो सफलता की सीढ़ियां चढ़ते देखना चाहती थी ,वो तो भूखा है। कोई गरीबों के लिए खाना बाँट था उसी से एक थैली ली थी जो माँ को दे दी। पेंतीस साल का बेरोजगार बेटा घर में है ,इस कारण वो ग़रीबी में जीवन यापन कर रहे हैं। कंपकंपाती ठंड में उसने थोड़ा गुनगुना पानी पिया और आँखें मूँद लीं। उसे लगा जैसे उसकी माँ उसे बुला रही है ,संजू ... संजू ..... वो अपने विद्यालय से दौड़ता हुआ आया और अपनी माँ के गले से लिपट गया। पिता अपनी दुकान से आये थे ,तीनों ने साथ में खाना खाया ,उसी दुकान से घर का खर्च चलता था। वे अपनी कमाई का अधिक से अधिक हिस्सा संजू की पढ़ाई में ही ख़र्च करते ,अब उनका ये ही इकलौता बेटा जो था। पहले वो इकलौता नहीं था उसकी एक बहन भी थी लेकिन एक बीमारी के चलते वो नहीं रही। अब ये ही उनकी 'आँखों का तारा था। ''
सब कुछ अच्छे से चल रहा था ,एक दिन उसने कुछ पंक्तियाँ लिखकर अपनी अध्यापिका को सुनाई। उसकी अध्यापिका ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा -तुम तो बड़े ही अच्छे कवि बन सकते हो ,पढ़ाई से जब भी समय मिले तो लिखा करो। अध्यापिका से प्रोत्साहन मिला तो उसने अपनी कविता अपने विद्यालय की पत्रिका में भी छपने के लिए भेजी। पत्रिका में कविता छपने से उसके माता -पिता भी ख़ुश हुए। अब तो जब भी समय मिलता वो कविता लिखने बैठ जाता। दोस्तों को भी सुनाता उनसे उसे प्रशंसा मिलती तो वो खुश होता। पढ़ाई में पिछड़ने लगा ,एक दिन तो प्रधानाचार्य ने भी उसके माता -पिता को बुला भेजा। घर आकर उन्होंने समझाया -बेटा ! पढ़ाई करो ,तभी तुम आगे बढ़ पाओगे ,कविता तो शौक के लिए होती हैं ,इनसे पेट नहीं भरेगा ,पेट तो कमाने से भरेगा और कमाने के लिए पढ़ाई करनी पड़ती है लेकिन किस्मत को पता नहीं क्या मंजूर था ?उसे तो कविताओं का शौक पूरी तरह उसके सिर पर सवार था। किसी तरह उसने बारहवीं पूरी की। कॉलिज में जैसे -तैसे दाखिला मिला ,वहाँ भी उसकी कविताओं के लिए प्रशंसा मिली।
अब तो उसने अपनी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में पूरी उम्मीद के साथ छपने के लिए भेजीं ,वे सभी ससम्मान वापस आ गयीं ,समाचार-पत्र में भी भेजीं एक -दो कविता छपीं भी ,इतने बड़े समाचार पत्र में एक छोटी सी जगह थी, किसी का ध्यान गया भी ,किसी का नहीं। माता -पिता ने समझाया -बेटा ,पेट भरने के लिए कुछ काम करो। पेट कविताओं से नहीं, रोटी से भरेगा। उसके सभी दोस्त उसे कवि कहकर ही बुलाते ,उसे अच्छा भी लगता। माता -पिता के कहने पर एक -दो जगह काम भी किया लेकिन ध्यान न देने के कारण, हटा भी दिया गया। कई जगह काम किया लेकिन उसे तो अपनी प्रशंसा का चस्का जो लग गया था।कभी कोई ऊँची आवाज में कुछ कह भी देता तो उसे सहन नहीं होता ,वो तो जैसे अपने को बड़ा कवि मा ने बैठा था। परेशान माता -पिता ने सोचा -'इसका विवाह कर देते हैं ,जब जिम्मेदारी सिर पर पड़ेगी तो शायद काम में मन लगाए लेकिन कोई भी किसी भी बेरोज़गार ,लापरवाह व्यक्ति को अपनी बेटी देने को तैयार नहीं था। बढ़ते -बढ़ते उम्र तीस पार कर गयी। अब पिता की उम्मीदें धीरे -धीरे दम तोड़ने लगीं। उम्र जल्द ही अपना असर दिखाने लगी। मन में ख़ुशी और उत्साह हो तो जीवन जीने का मन करता है लेकिन उन्हें तो चिंता और दुःख ने घेरा था। ये तो आदमी को और कमजोर बना देती हैं ,उन्होंने अकेला नहीं छोड़ा अपने साथ लेकर गयीं। था भी क्या ?इस संसार में , जो उनके जीवन का माध्यम बनता ,उन्होंने इस जीवन का मोह छोड़ा।
माँ तो अब भी उम्मीद का दिया जलाये थी ,वो दुकान पर बैठ जाती ,माँ -बेटों का ख़र्च चल जाता ,लेकिन अब दुकान भी कम चल रही थी ,जो सामान उसमें था वो बिक गया ,नए सामान के लिए भी तो पैसा चाहिए। जो उसे कवि कहकर बुलाते ,अब वो उसकी पीठ पीछे मुस्कुराते। कहते -माँ कमाती है ,बड़ा कवि बना फिरता है। इस बात का एहसास भी उसे धीरे -धीरे होने लगा। कविता भावनात्मक पूर्ति तो करती लेकिन पेट की आग बुझाने में असफल थी। अब वो किसी को कविता सुनाता भी तो प्रशंसा की उम्मीद से नहीं वरन दो रोटी के लिए ,किन्तु लोग समझ नहीं पाते। अब उसे कहना भी पड़ा -भाई कुछ पैसा वगैरहा भी दिया करो। उसका असर ये होता ,कोई इक्का -दुक्का भीख की तरह दे भी जाता तो कोई कह देता हमें नहीं सुननी। उल्टा -सीधा भी बोल जाते। समाचार पत्र में छपने के लिए भी उसका झगड़ा हो गया। क्या तुम्हारी कविताएँ ही छापते रहें और खबरें नहीं हैं। हम वो छापते हैं जो लोगों को पसंद आये हमें अपना समाचार -पत्र चलाना है ,बंद नहीं करना। बड़े आये कवि बनने, इतने बड़े -बड़े कवियों -लेखकों को छोड़कर तुम्हें छापें। दो -चार कवितायें क्या लिख ली ,पता नहीं अपने क्या मान बैठे हैं ?अपने को बड़ा कवि समझने लगा।
जिंदगी उसे नए -नए रंग दिखा चुकी थी ,अब तो भूखों मरने की नौबत आ गयी। न जाने लक्ष्मीजी क्यों रुष्ट हैं। आज तो माँ के खाने का इंतजाम हो गया ,कल क्या होगा ?उफ़ !ये ठंड भी न ,जान लेकर रहेगी ,पेट में घुसी जा रही है। गरीब होना भी एक अभिशाप ही है ,तभी उसके पास माँ आई ,बोली -बेटा ,क्या नींद नहीं आ रही ,आजा !मेरी गोद में सिर रखकर सो जा ,अच्छे से नींद आ जाएगी।लोग ठीक ही कहते हैं ,-'माँ के चरणों में स्वर्ग है '',मैं कहता हूँ-' माँ की गोद में शांति है। सुबह सूरज निकला रोज की तरह ,वो भी देर से निकला ,ठंड के कारण वो भी अलसाया था। संजू उठ जा !मैंने तेरे लिए गर्म पानी किया है ,कहकर वो चली गयी ,थोड़ी देर बाद आकर देखा ,वो अभी भी सो रहा था। ये लड़का भी न क्या -क्या दिन दिखायेगा ?और वो उसे हिलाने लगी ,देखा वो तो अकड़ा पड़ा है किसी शंका से हिल गयी। उसकी आशंका निर्मूल साबित न हुई। जिसके लिए वो जी रही थी ,उस कवि की आत्मा तो भूखे पेट, इस तन से मुक्त हो चुकी थी। माँ की जब चेतना लौटी ,तो भी वो चीखने के सिवा कुछ न कर सकी। मौहल्ले के लोग आये उसे संभाला ,सारे कार्य किये ,आज माँ ने कई दिनों बाद चाय पी थी ,बेबस,बेचारी ,लाचार माँ। अगले दिन समाचार -पत्र में एक छोटा सा कॉलम था --''पेंतीस साल के कवि संजू नहीं रहे ,अधिक ठंड के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। ''


