shart [part 1]

शादी के बाद अचानक संजय दरवाजे पर आ खड़ा हुआ ,मुझे उससे बिल्कुल भी उम्म्मीद नहीं थी कि वो इस तरह मेरी ससुराल आ जायेगा ,पहले तो मैं घबरा गयी , फिर थोड़ा सहज होकर उसे अंदर बुलाया। अभी वो बैठा ही था, कि मेरी सासूमाँ आ गयीं। उन्होंने पूछा -बहु!ये कौन है ?मैंने सहजता से उत्तर दिया -मेरी मम्मी की सहेली के बेटे हैं और हम दोनों साथ ही कॉलिज में पढ़े भी हैं। अच्छा, कहकर सासूमाँ वहीं बैठ गयीं बोली -बेटे यहाँ कैसे आना हुआ ? संजय मेरी तरफ तिरछी निग़ाहों से देखते हुए बोला -माँजी !मैं पास ही शहर में एक कम्पनी में मैनेजर हूँ इधर की तरफ आया था ,सोचा आप लोगों  मिलता चलूँ। वो बार -बार मेरी तरफ देखने का प्रयत्न कर रहा था शायद मेरे चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हो। मैं सोच रही थी कि इतनी बड़ी गाड़ी में बैठकर ये अचानक यहाँ किस उद्देश्य से आया होगा ?इसे मेरे घर का पता 



किसने दिया होगा ?मैं अंदर चाय -नाश्ते के लिए आ गयी। मेरे सामने जिंदगी के कुछ वर्ष किसी चलचित्र की तरह घूमने लगे और मैं अपने कॉलिज के जमाने में खो गयी। संजय की मम्मी मेरी मम्मी की अच्छी दोस्त थीं ,इससे पहले हमें पता ही नहीं था कि संजय उनका बेटा है। एक दिन वो हमारे घर आयीं ,पूछने लगीं -बिटिया क्या कर रही हो ,कौन से कॉलिज में हो ?जब मैंने बताया तो बोलीं -क्या तुम संजय को जानती हो ? मुझे नहीं पता था कि वो इनका ही लड़का है। मैंने पहचानते हुए कहा -हाँ आंटीजी !वो तो मेरी ही कक्षा में है ,वो तो पढ़ता -लिखता कुछ नहीं ,सारा दिन घूमता रहता है। क्लास में कभी आता है ,कभी नहीं ,मुझसे ही नोट्स मांगकर ले जाता है। मैंने जोश में आकर उसकी खूब बुराई कर डाली। फिर पूछा - आप उसे कैसे जानती हैं ?वो दुःखी मन से बोलीं -वो आवारा मेरा ही बेटा है। तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। 
              ओह !'आई एम सॉरी ''आंटी। अब' तीर कमान से निकल 'चुका था। वो बोलीं -दीपांशा  !अब तो तुम उसे जान ही गयी हो। अब तुम भी उसे समझाकर देख लो, शायद तुम्हारे कहने से उसकी बुद्धि में कुछ घुस जाये , उसकी जिंदगी संवर जाये। मुझे अपने कहे पर अफ़सोस हो रहा था ,मैं एकदम चुप बैठ गयी। वो मेरी मम्मी से बोलीं -तुम्हारी बेटी पढ़ने में होशियार है ,दोनों साथ पढ़ें तो उसका मन भी शायद पढ़ने में लग जाये। वो तो तभी पढ़ने बैठता जब पेपर शुरू होते हैं। कॉलिज में कभी कोई उलटी -सीधी हरकत करे तो मुझे बताना। वो मेरे ऊपर जिम्मेदारी डालकर चली गयीं। अब जैसे मैं उसके ऊपर बड़ी हो गयी ,वो जो आंटी से बातें कहीं थीं उनका अफ़सोस भी खत्म हो गया। अब मेरी निगाहें उस पर रहतीं कि वो कोई गलती करे और मैं जाकर इसकी मम्मी से चुगली करूँ। उसने मुझसे फिर से मेरे नोट्स माँगे। तब मैंने बताया -तुम्हारी मम्मी मेरी मम्मी की दोस्त हैं ,वो तुम्हारी पढ़ाई को लेकर परेशान थीं ,थोड़ा अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो लेकिन उसने मेरी बात को अनसुना कर दिया। मैंने भी उसके इस व्यवहार को देख सोच लिया 'बच्चू तुम्हें मैं सही राह पर लाकर रहूंगी। 

             कक्षा में हमारे  अध्यापक पढ़ा रहे  थे  लेकिन वो कभी इधर ,कभी उधर देख रहा था। मैंने एक पेपर पर लिखा -सब देख रही हूँ ,आंटीजी को बताऊँगी और उस कागज का गोला बनाकर  तरफ फेंका वो उसे उठाने ही वाला  था कि हमारे  अध्यापक ने देख लिया  वो बोले  -पढ़ाई में ध्यान नहीं है 'लव लैटर 'के लिए ये ही समय मिला है। बाहर जा सकते हैं ,वहाँ कुछ भी करें ,पढ़ने से भी बच जायेंगे। हम दोनों बाहर आ गए। नीचे ही नीचे पूरी कक्षा हँस रही थी और मुझे गुस्सा आ रहा था कि इसके कारण मैं भी हँसी का पात्र बनी और वो अपनी मस्ती में बेंच पर लेट गया। मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आ रहा था कि मैं क्यों इसके चक्कर में पड़ी ?मैंने एक पुस्तक निकाली और पढ़ने का प्रयत्न करने लगी लेकिन ध्यान नहीं लगा। थोड़ी देर बाद उसने मेरे नोट्स लौटाए मैंने उस पर ध्यान दिए बगैर ले लिए। जब घर में मैंने वो नोट्स खोले तो उनमें से एक पत्र गिरा जिसमें उसने क्षमा याचना की और आगे से ऐसी गलती न होने का वायदा किया। मैंने भी इसे माफ कर दिया। अब हम दोनों साथ - साथ रहते पढ़ते। इसका भी ध्यान पढ़ाई में लगने लगा। एक दिन आंटीजी आयीं बोलीं -बेटे अब तो वो पढ़ता भी है ,जिम्मेदार भी होता जा रहा है ,ये सब तुम्हारी संगत का ही असर है। सुनकर मुझे भी अच्छा लगा, उसे सुधारने के फेर में, मैं कब उसकी और आकर्षित हो गयी पता ही नहीं चला? और हम दोनों एक -दूसरे के प्यार में पड़ गए। 
               जब घर वालों को पता चला तो सबने इसका विरोध किया।  भाई ने समझाया -तुम एक लापरवाह इंसान के चक्कर में कैसे पड़ सकती हो ?इससे पहले कि बात ज्यादा बिगड़ती घरवालों ने मेरा विवाह नितिन से कर दिया। शुरू में मुझे पहले तो बहुत परेशानी हुई वो मेरा पहला प्यार था, अभी ठीक तरह से परवान भी नहीं चढ़ा था कि हमें अलग कर दिया गया। घरवालों ने तो कह भी दिया था फिर बोले - कि ये अभी कुछ करता नहीं ,मान लो विवाह कर दिया और ये फिर से लापरवाह हो गया तो तुम क्या करोगी ?उनके तर्कों के कारण मैं चुप रही उनके किसी बात का जबाब मेरे पास नहीं था। ससुराल में आकर मैं किसी बात के लिए न ही कहती, काम को कहते, कर देती। नितिन स्वभाव से अच्छे थे उन्होंने मुझे घर के लोगो को ,अपने आप को समझने का मौका दिया। मेरा हर तरह से सहयोग किया। धीरे -धीरे मैं परिवार के लोगों के अच्छे व्यवहार के कारण अपने आप को ही दोषी समझने लगी, कि इसमें इन लोगों की क्या गलती है ?मैंने इस परिवार को समझा और परिवार में घुलने -मिलने का प्रयत्न करने लगी और मैं इस परिवार की बहु बन गयी लेकिन आज सालभर बाद अचानक संजय को देखकर  मैं थोड़ा घबरा गयी। मैं इसके आने का उद्देश्य समझ नहीं पाई, फिर शंका ने घेरा कहीं ये मुझे किसी भी बात के लिए विवश न करे। 
             तभी सासूमाँ की आवाज से वो वर्तमान में आ गयी -बहु क्या, अभी तक चाय नहीं   बनी ?अभी लाई ,मम्मीजी कहकर, मैं ट्रे में फ़ल ,बिस्किट, चाय आदि नाश्ता लेकर आ गयी। मेरे आते ही सासुमाँ उठकर चल दीं बोलीं -बहु तुम  बैठो ,मैं  आराम करती हूँ। उनके जाने के बाद संजय बोला -कैसी हो तुम ?ठीक हूँ मैंने छोटा सा उत्तर दिया। आज मुझे उसका यहाँ आना अच्छा नहीं लग रहा था ,शंकाएँ बार -बार किसी साँप की तरह फ़न उठा रहीं थीं। उसने अपनी बात जारी रखते हुए हुए कहा -अब मैं बड़ी कम्पनी में मैनेजर हूँ। अच्छी बात है ,आंटीजी भी अब खुश होंगी। तुम बताओ ,तुम खुश हो कि नहीं वो बोला। मैं भी खुश हूँ लेकिन अब मेरे खुश होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने उत्तर दिया। वो बोला -तुम्हारे जाने के बाद मुझे एहसास हुआ ,मैंने अपने जीवन की कितनी कीमती चीज खो दी ?उसकी बात सुनकर पहले मैंने चारों तरफ नज़र दौड़ाई,इस डर से कहीं कोई सुन न ले। फिर सोचा -घर में है भी कौन ?मम्मीजी तो अंदर गयीं हैं सोने के लिए,[



यही सोचकर  मैंने चैन की साँस ली। तुम यहाँ किसलिए आये हो ?मैंने पूछा। मैंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा -मैं अपने घर आती तो मिल लेती या तुम्हारी नौकरी का घरवालों से पता चल जाता ,तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था। तभी संजय बोला -तुमसे मिले बिना रहा नहीं जा रहा था ,सो आ गया। मिल लिए! अब तुम जाओ! मैंने उसे हाथ  इशारा करते हुए कहा। संजय बोला -तुम मुझे क्यों भगा रही हो ?जैसे मैं  अजनबी हूँ ,हमने प्यार किया है। उसकी बात को बीच में ही काटते हुए बोली -किया था ,हैं नहीं। क्या मतलब ?हमारे बीच अब कुछ नहीं रहा संजय खड़े होते हुए बोला। रहा क्यों नहीं ,यादों का रिश्ता है न ,मैंने उसे बाहर की तरफ धकेलते हुए कहा। जाते -जाते भी जबरदस्ती मुझे अपना फोन नंबर देकर गया। 























laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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