ghar ki chhet

तुम्हारे बिना मैं क्या कर पाऊँगी ?तुमने तो सात जन्मों का वादा किया और इसी जन्म में मुझे अकेले छोड़कर चले गए। कैसे जी पाऊँगी ,क्या करूंगी तुम्हारे बिना ?हम तो दोनों ही गाड़ी के पहिये थे ,मैं अकेले कैसे इस गृहस्थी की गाड़ी को संभाल पाऊँगी? जो इस पर सवार हैं, वे तो अभी अबोध हैं ,वे इस संसार को क्या समझ पायेंगे ?इंसानों को समझते -समझते पूरी उम्र निकल जाती है। [अपने बच्चों का मुँह देखते हुए ]इनके जीवन तो अभी हम पर ही निर्भर थे ,कैसे इस जिंदगी की कठोरता का सामना कर पायेंगे ?तुम  इतने निष्ठुर ,कठोर कैसे हो सकते हो ?तुम तो इस' घर की छत 'थे। वो मानव के पार्थिव शरीर के पास बैठी बोले जा रही थी ,रोये जा रही थी। उसका मन भविष्य की कठोर परिस्थितियों के डर से सहम गया था ,वो तो कभी  नहीं बाहर भी नहीं गयी। कैसे घर -बाहर दोनों संभाल पायेगी ,घर तो दोनों से ही चलता है। घर नींव पर टिकता जरूर है लेकिन छत उसे सर्दी ,गर्मी बाहरी प्रकोपों से बचाती है। छत ही न रही तो नींव भी उस घर को कितने दिनों तक संभाल पायेगी। ये ही बातें सोचकर वो फिर से जोर -जोर से रोने लगी बोली -ये तो तुमने मुझे धोखा दे दिया संयम के पापा। रोते -रोते उसे न जाने कितना समय बीत गया। जो लोग उनके बारे में सुनकर आये थे वो तो उन्हें लेकर चले भी गए आकर नहा -धो भी लिए, उसकी तंद्रा तब टूटी जब उसे नहाने के लिए कह रहे थे। 

         क्यूँ  नहाऊं ?उसका मन चीत्कार कर रहा था। काश !एक बार तो सामने आ जाते ,मेरे प्रश्नों का उत्तर दे देते। घर की औरतें उसे खीँचकर स्नानागार में ले गयीं। नहाने के बाद अचानक उसे चक्कर सा आया और वो लोगों की नजर में बेसुध हो गयी ,तभी मानव उसके पास आये और उससे बातें करने लगे बोले -मेरा तन ही तो तुम्हारे पास नहीं ,मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ। मैं तो तुम्हारा साथ जिंदगी भर के लिए  देना चाहता था पर क्या करूँ ?मजबूर था। किस्मत में यहीं तक हमारा साथ था और वो रोने लगे। रोते हुए बोले -मुझे पता है ,तुम हिम्मत से सब संभाल लोगी ,मेरा तन भले ही तुम्हारे साथ न हो लेकिन मैं अब भी तुम्हारे साथ हूँ ,अपने को अकेला मत समझना। सुधा उनके आँसू पोंछते हुए बोली -क्या आदमी रोते  हुए अच्छे लगते हैं ?चुप हो जाइये ,मैं सब संभाल लूँगी ,आप परेशान न हों, उसके इतना कहते ही मानव एकाएक गायब हो गए। तभी वो पुकारने लगी मानव !मानव !उसे चेतना आई ,उसने देखा ,कुछ महिलायें उसे घेरे खड़ी थीं और उसके मुँह पर पानी के छींटे मार रहीं थीं। वो एकाएक उठ बैठी ,उन्होंने पानी दिया उसके बाद वो शांत रही क्योंकि उसने मानव से वायदा जो किया था। 
           वो कोई भी काम करती ,उसे लगता कि मानव उसके साथ हैं ,उन्होंने अकेला नहीं छोड़ा उसे। उसमें हिम्मत बनी और वो हो हिम्मत उसने अपने बच्चों को दी। धीरे -धीरे उसने काम संभालने की सोची -घर खर्चों के लिए उसने अपना मकान किराये पर दिया और एक दुकान खोलकर उसमें बैठने लगी। दो -तीन वर्षों की मेहनत के बाद बेटे ने व्यापार सँभाला। माँ को आराम करने के लिए कहा। वो फिर भी अपने बच्चों का ध्यान रखती। कि वो जिंदगी की चालाकियों से अनजान है लेकिन बेटे ने अपने प्यार ,व्यवहार और

ईमानदारी से व्यापार बढ़ा लिया। वो अक्सर मानव से बातें करती -देखो !अब तुम्हारा बेटा घर की छत बन गया है , अब उसने आपके  घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली है। अब इस घर की बुनियाद मजबूत करनी है तो बहु लानी है। बेटे का विवाह हुआ ,ख़ुशी -ख़ुशी सारे काम हो गए। एक दिन बोली -संयम के पापा ,आपने जो जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी ,वो पूरी हो गयी ,अब मेरा मन तुम्हारे बिना नहीं लगता अब तो अपने पास बुला लो। बहु भी स्वभाव से अच्छी थी उसने आते ही घर को अच्छे से संभाल लिया। वो अधिक से अधिक समय पूजा -पाठ में लगी रहती और एक दिन पूजा करते -करते वो अपने मानव के पास चली गयी। 














       

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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