उसकी लाश गाड़ी की डिक्की में पड़ी थी ,हाँ अब वो लाश ही कहलाई जाएगी जब तक जीवन है ,तब तक वो किसी की माँ नानी ,ताई और चाची थी। जीवन समाप्त होते ही वो एक लाश बनकर रह गई वो लाश भी ऐसी जिसकी किसी को कानों -कान खबर ही नहीं। न इस गाँव में [बेटी का ससुराल ]और न ही उस गांव में जहाँ वो बहु बनकर आई थी। वो एक लावारिश लाश बनकर रह गई थी। घर में सब खा -पी रहे थे किसी को दुःख भी नहीं था। दुःख होता भी कैसे ?जब कोई अपना ही नहीं था ,उनके सर से तो जैसे बोझ उतर गया।
तड़के ही घर में रोना -धोना शुरू हो गया ,गांववालों वालों को भी पता चला तो धीरे -धीरे आने लगे। लाश को डिक्की से निकला गया ,लोगों को दिखाने के लिए उनका अंतिम संस्कार जो करना था। वो तो कब की जा चुकी थी। जीवन का अंतिम संस्कार ही रह गया था ,लेकिन लाश की ऐसी दुर्दशा होगी कभी सोचा भी न था। पीछे से आवाज आई -कब गईं मालकिन ?सबने पीछे घूमकर देखा उसने सबकी प्रश्नसूचक निगाहों का जबाब दिया। मैं बहुत पहले इनके यहाँ काम करता था। अंतिम संस्कार के बाद सब इकट्ठा हुए ,कोई भी इनके बारे में कुछ भी नहीं जानता था ,तब गाँव के रामदीन ने उन्हें बताना शुरू किया।
छोटे-मोटे परिवार से नहीं थीं वो ,कहते थे कि उनके पिता कई गांवों के जमींदार थे ,उनकी इकलौती बेटी थी ,अंगूरी देवी। पिता ने बड़े लाड़ -प्यार से पाला था ,कई -कई नौकर थे घर में ,कभी रसोईघर का मुँह नहीं देखा था। बेटी जब बड़ी हुई तो बड़े ख़ानदानी घर में इनका विवाह तय किया। मैं भी वहीं काम करता था ,उनके यहाँ घर की औरतें ही रसोई बनाती थीं। नई बहु को खाना बनाने की रस्म में भेजा। इन्होंने तो कभी खाना बनाया ही नहीं था। बहुत ही सीधी थीं ,जब उन्होंने मना कर दिया कि खाना बनाना नहीं आता तो उनकी जेठानी ने कहा -तुम खिचड़ी बना लो, वो जल्दी बन जाएगी। मालकिन ने पूछा- खिचड़ी कैसे बनाते हैं ?उसने कहा- कि बाजरा लो और पानी में डाल दो। न ही उसकी मात्रा बताई,कितने पानी में डालना है ,ये भी नहीं बताया। बेचारी ने बड़ा बर्तन भरकर पानी चूल्हे पर रख दिया। जितना बाजरा था सारा उस पानी में डाल दिया।
जेठानी को पहले से ही ईर्ष्या थी देखा कि बाजरा कच्चा बना है ,फिर भी उसने कुछ नहीं बताया। खिचड़ी ले जाकर सबके सामने परोस दी। सबके सामने उसकी बेइज्जती कराई। ससुराल वाले इन्हें क्रोध मे इनके घर छोड़ गए और कहा - कि इसे पूरा काम सिखाओ, तब हम इसे ले जाएंगे। क्या तुमने इसे खाना बनाना भी नहीं सिखाया ? एक साल तक वो अपने पिता के घर रहीं। वहाँ रहकर इन्होंने सारा काम सीखा। जमींदारी को अब संभालने वाला कोई नहीं था।पिता की उम्र भी हो रही थी ,अब उनका इतना रुतबा भी नहीं रहा था। ससुराल वाले कहाँ किसकी सुनते हैं ?पिता के कहने -सुनने पर और ज़मीन -जायदाद के लालच में इन्हें वापस ले आये।
इसी तरह दिन बीतते गए ,इनके बच्चे भी हुए पर कोई जीवित नहीं बचा। कुछ दिन बाद एक बेटी हुई वो ही बची जो आज हमारे गाँव की बहु है। न भाई न कोई बेटा किस्मत में शायद ये ही लिखा था। समय के साथ -साथ सब कुछ बदल गया। बेटी का विवाह किया उसके कुछ साल बाद हमारे मालिक भी एक बीमारी में चल बसे। इतनी सारी जमीन -जायदाद संभालने वाला कोई नहीं ,सबकी नजर उनकी सम्पत्ति पर थी। तब मालकिन ने फैसला किया कि वो स्वयं संभालेंगी ,एक अकेली औरत जो कभी घर से बाहर नहीं निकली फिर भी हिम्मत से काम लिया। लेकिन जीवन में दुःख लिखें है तो कोई क्या कर सकता है? बीमार पड़ गईं ,अकेली जान !कैसे क्या देखे ?कुछ दिन के लिए जेठ के लड़के को खेती संभालने को दी लेकिन उसने तो हड़पने की तैयारी कर ली।
उसने पहले तो उन्हें पागल साबित करना चाहा जब ये प्रयास विफल हो गया तब उसने दूसरी चाल चली। मेरे पिता के साथ चाची के संबंध थे ,बेटी भी मेरे पिता से है इस नाते मैं उसका भाई हुआ और उस ज़मीन का अधिकारी भी। न जाने उस जमीन के कारण क्या -क्या लांछन झेले ?सालों मुक़दमा चलता रहा ,आख़िर मुक़दमा जीत ही गईं।
माँ -बाप बच्चे को पैदा करते हैं ,उम्मीद करते हैं कि औलाद की झोली खुशियों से भर दें , बच्चे सुख पूर्वक रहें लेकिन क़िस्मत तो अपना खेल खेलती है। उन्होंने सोचा कि मरने के बाद तो सारी जायदाद बेटी की ही होगी, जीते जी क्यों न कर दूँ ?बुढ़ापे में कहाँ जाउंगी ?बेटी के ही पास रह लुँगी। दामाद का अहसान भी नहीं रहेगा। बुढ़ापा भी आराम से कट जायेगा। एक अदद बेटे की उम्मीद यूँ ही नहीं रखते लोग। अपनी दहलीज़ पर पड़े रहें ,बेटा कैसा भी हो ,समाज के डर से ,प्यार से ,गुस्से से किसी भी स्थिति में हो अपनी दहलीज़ छोड़नी तो नहीं पड़ती।
जिस घर में ब्याह कर आई अब उस दहलीज़ को जीते जी छोड़ना पड़ेगा और वो अपनी बेटी के पास उसके पति की नौकरी पर चली गईं थीं। अभी साल भर भी नहीं हुआ मैं किसी काम से शहर गया था ,मैं मालकिन से भी मिलने गया था तब मालकिन कह रहीं थी -कि कैसा भी होता ?एक बेटा तो हो ही जाता। उनकी हालत देखकर लगता था कि बेटी तो अपने परिवार का ध्यान रखती।जिस प्यार और सहानुभूति के लिए अपनी जमीन -जायदाद दे दी। उसके बाद भी उन पहचाने रिश्तों के बीच भी अनजान थीं। बस कह रहीं थीं कि कैसा भी होता ?एक बेटा तो होता ,अपनी दहलीज़ पर तो रहती उन्हें अपना कोई नजर नहीं आ रहा था। अकेलेपन ने उन्हें जकड़ रखा था। अनजान लोगों के बीच से निकलकर वो अब अनजान देश चली गईं। आज ये हालत देखी ,कम से कम उन्हें उनके गाँव ही ले जाते ,जहाँ वो ब्याह कर आई।
औरत की जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण संस्कार नामकरण जहाँ वो जन्म लेती है ,नाम मिलता है यानि पिता का घर। वाग्दान संस्कार के बाद पति के घर आती है ,और वहीँ अपने परिवार में रहकर ही उसकी अंतिम यात्रा शुरू होती है ,होता है अंतिम संस्कार।यहाँ अंतिम संस्कार के लिए भी उसका कोई अपना नहीं था।
तड़के ही घर में रोना -धोना शुरू हो गया ,गांववालों वालों को भी पता चला तो धीरे -धीरे आने लगे। लाश को डिक्की से निकला गया ,लोगों को दिखाने के लिए उनका अंतिम संस्कार जो करना था। वो तो कब की जा चुकी थी। जीवन का अंतिम संस्कार ही रह गया था ,लेकिन लाश की ऐसी दुर्दशा होगी कभी सोचा भी न था। पीछे से आवाज आई -कब गईं मालकिन ?सबने पीछे घूमकर देखा उसने सबकी प्रश्नसूचक निगाहों का जबाब दिया। मैं बहुत पहले इनके यहाँ काम करता था। अंतिम संस्कार के बाद सब इकट्ठा हुए ,कोई भी इनके बारे में कुछ भी नहीं जानता था ,तब गाँव के रामदीन ने उन्हें बताना शुरू किया।
छोटे-मोटे परिवार से नहीं थीं वो ,कहते थे कि उनके पिता कई गांवों के जमींदार थे ,उनकी इकलौती बेटी थी ,अंगूरी देवी। पिता ने बड़े लाड़ -प्यार से पाला था ,कई -कई नौकर थे घर में ,कभी रसोईघर का मुँह नहीं देखा था। बेटी जब बड़ी हुई तो बड़े ख़ानदानी घर में इनका विवाह तय किया। मैं भी वहीं काम करता था ,उनके यहाँ घर की औरतें ही रसोई बनाती थीं। नई बहु को खाना बनाने की रस्म में भेजा। इन्होंने तो कभी खाना बनाया ही नहीं था। बहुत ही सीधी थीं ,जब उन्होंने मना कर दिया कि खाना बनाना नहीं आता तो उनकी जेठानी ने कहा -तुम खिचड़ी बना लो, वो जल्दी बन जाएगी। मालकिन ने पूछा- खिचड़ी कैसे बनाते हैं ?उसने कहा- कि बाजरा लो और पानी में डाल दो। न ही उसकी मात्रा बताई,कितने पानी में डालना है ,ये भी नहीं बताया। बेचारी ने बड़ा बर्तन भरकर पानी चूल्हे पर रख दिया। जितना बाजरा था सारा उस पानी में डाल दिया।
जेठानी को पहले से ही ईर्ष्या थी देखा कि बाजरा कच्चा बना है ,फिर भी उसने कुछ नहीं बताया। खिचड़ी ले जाकर सबके सामने परोस दी। सबके सामने उसकी बेइज्जती कराई। ससुराल वाले इन्हें क्रोध मे इनके घर छोड़ गए और कहा - कि इसे पूरा काम सिखाओ, तब हम इसे ले जाएंगे। क्या तुमने इसे खाना बनाना भी नहीं सिखाया ? एक साल तक वो अपने पिता के घर रहीं। वहाँ रहकर इन्होंने सारा काम सीखा। जमींदारी को अब संभालने वाला कोई नहीं था।पिता की उम्र भी हो रही थी ,अब उनका इतना रुतबा भी नहीं रहा था। ससुराल वाले कहाँ किसकी सुनते हैं ?पिता के कहने -सुनने पर और ज़मीन -जायदाद के लालच में इन्हें वापस ले आये।
इसी तरह दिन बीतते गए ,इनके बच्चे भी हुए पर कोई जीवित नहीं बचा। कुछ दिन बाद एक बेटी हुई वो ही बची जो आज हमारे गाँव की बहु है। न भाई न कोई बेटा किस्मत में शायद ये ही लिखा था। समय के साथ -साथ सब कुछ बदल गया। बेटी का विवाह किया उसके कुछ साल बाद हमारे मालिक भी एक बीमारी में चल बसे। इतनी सारी जमीन -जायदाद संभालने वाला कोई नहीं ,सबकी नजर उनकी सम्पत्ति पर थी। तब मालकिन ने फैसला किया कि वो स्वयं संभालेंगी ,एक अकेली औरत जो कभी घर से बाहर नहीं निकली फिर भी हिम्मत से काम लिया। लेकिन जीवन में दुःख लिखें है तो कोई क्या कर सकता है? बीमार पड़ गईं ,अकेली जान !कैसे क्या देखे ?कुछ दिन के लिए जेठ के लड़के को खेती संभालने को दी लेकिन उसने तो हड़पने की तैयारी कर ली।
उसने पहले तो उन्हें पागल साबित करना चाहा जब ये प्रयास विफल हो गया तब उसने दूसरी चाल चली। मेरे पिता के साथ चाची के संबंध थे ,बेटी भी मेरे पिता से है इस नाते मैं उसका भाई हुआ और उस ज़मीन का अधिकारी भी। न जाने उस जमीन के कारण क्या -क्या लांछन झेले ?सालों मुक़दमा चलता रहा ,आख़िर मुक़दमा जीत ही गईं।
माँ -बाप बच्चे को पैदा करते हैं ,उम्मीद करते हैं कि औलाद की झोली खुशियों से भर दें , बच्चे सुख पूर्वक रहें लेकिन क़िस्मत तो अपना खेल खेलती है। उन्होंने सोचा कि मरने के बाद तो सारी जायदाद बेटी की ही होगी, जीते जी क्यों न कर दूँ ?बुढ़ापे में कहाँ जाउंगी ?बेटी के ही पास रह लुँगी। दामाद का अहसान भी नहीं रहेगा। बुढ़ापा भी आराम से कट जायेगा। एक अदद बेटे की उम्मीद यूँ ही नहीं रखते लोग। अपनी दहलीज़ पर पड़े रहें ,बेटा कैसा भी हो ,समाज के डर से ,प्यार से ,गुस्से से किसी भी स्थिति में हो अपनी दहलीज़ छोड़नी तो नहीं पड़ती।
जिस घर में ब्याह कर आई अब उस दहलीज़ को जीते जी छोड़ना पड़ेगा और वो अपनी बेटी के पास उसके पति की नौकरी पर चली गईं थीं। अभी साल भर भी नहीं हुआ मैं किसी काम से शहर गया था ,मैं मालकिन से भी मिलने गया था तब मालकिन कह रहीं थी -कि कैसा भी होता ?एक बेटा तो हो ही जाता। उनकी हालत देखकर लगता था कि बेटी तो अपने परिवार का ध्यान रखती।जिस प्यार और सहानुभूति के लिए अपनी जमीन -जायदाद दे दी। उसके बाद भी उन पहचाने रिश्तों के बीच भी अनजान थीं। बस कह रहीं थीं कि कैसा भी होता ?एक बेटा तो होता ,अपनी दहलीज़ पर तो रहती उन्हें अपना कोई नजर नहीं आ रहा था। अकेलेपन ने उन्हें जकड़ रखा था। अनजान लोगों के बीच से निकलकर वो अब अनजान देश चली गईं। आज ये हालत देखी ,कम से कम उन्हें उनके गाँव ही ले जाते ,जहाँ वो ब्याह कर आई।
औरत की जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण संस्कार नामकरण जहाँ वो जन्म लेती है ,नाम मिलता है यानि पिता का घर। वाग्दान संस्कार के बाद पति के घर आती है ,और वहीँ अपने परिवार में रहकर ही उसकी अंतिम यात्रा शुरू होती है ,होता है अंतिम संस्कार।यहाँ अंतिम संस्कार के लिए भी उसका कोई अपना नहीं था।

