बचपन ,निष्पाप ,निष्कलंक अभी तो जिंदगी को जानना शुरू किया है। जीवन क्या है ? ये भी नहीं पता ,अभी तो ये ही पता है कि इस संसार में जहाँ हम पैदा हुए उसे पृथ्वी कहते हैं। हम प्राणियों का परिवार भी होता है और परिवार वो होता है जिसमें माता -पिता के साथ अन्य रिश्ते भी होते हैं। रिश्तों की भी अभी इतनी पहचान नहीं की कौन से रिश्ते सही हैं या गलत? हमारे पास जो लोग हैं, वे अपने हैं या पराये ,जिनसे हम जुड़े हैं या जो जुड़ रहे हैं। समय के साथ -साथ अपनी समझ से या माता -पिता के अनुसार लोगों को समझना शुरू किया। उम्र के साथ -साथ ज्ञान भी बढ़ रहा है।
धीरे -धीरे प्रकृति की भी समझ आ रही है कि ये कैसे हमें जीवन दान देती है ?बचपन तो निश्छल चंचल होता है। अभी हमें इतनी भी समझ नहीं ,कौन हैं हम ?कहाँ से आये ?क्या हमारे जीवन का उद्देश्य है। जीवन को जीना सीख रहे हैं अभी। प्रकृति ने जो हमें चीजें दी हैं उनका आनन्द ले रहे हैं। जीवन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। जब मैं पहली बार बस में बैठा उसका आनन्द ही कुछ और था। मैं अपने पिता को बस में लिखीं पंक्तियाँ पढ़कर सुनाता तो पिता खुश होते। फिर मैं उनके अर्थ पूछता ,मेरी बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृति रही है। मैं बस की खिड़की के पास बैठा कुदरत के बनाये करिश्मों का अवलोकन कर रहा था। कुछ देर बाद मेरी खिड़की के पास कुछ सवारी [बस में जो लोग यात्रा कर रहे थे ,उन्हें वो बस वाला इसी नाम से पुकार रहा था ]आकर खड़ी हो गईं। मैंने भीड़ देखकर अपने माता -पिता को देखा ,उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से शांत होने का इशारा किया।
तभी मैंने देखा, वो लोग एक बड़ी सी नहर में पैसे डाल रहे हैं ,मैंने अपनी माँ की तरफ देखा वो भी मुझे पैसे दे रहीं थीं और बोलीं - पैसे डाल दो ,कोई इच्छा हो तो माँगो। मैंने और लोगों की तरह पैसे डाल दिए और हाथ भी जोड़े पर समझ नहीं आया कि ये इच्छा क्या होती है ?हम इस नदी से क्यों माँग रहे हैं। मेरे पास तो कोई इच्छा ही नहीं है। मैंने अपनी माँ से पूछा -ये इच्छा क्या है ?इसे हम क्यों माँग रहे हैं ?हमारे पास अपनी कोई इच्छा नहीं है। माँ ने बताया -इच्छा तो अपनी ही होती है पर हम उसे पूरी करने की कामना में नदी से उसका आशीर्वाद मांगते हैं। नदी हमारी इच्छाओं को कैसे पूरी करती है ?मैं क्या मांगू ,मेरी तो कोई इच्छा ही नहीं। मेरी तो सारी इच्छाएँ पिता पूरी करते हैं। माँ ने मेरी बातों को हँसकर टाल दिया।
मैंने अपने गुरूजी से पूछा -कि इच्छा क्या होती है ?और एक नदी उसे कैसे पूरी करती है ?तब गुरूजी ने बताया -नदी का जल हमें जीवन दान देता है उससे पौधों की सिंचाई होती है ,जिससे फ़ल -फूल पैदा हों और हमारा पेट भरे। इच्छा तो मनुष्य की अपनी सोच है इच्छा कभी एक नहीं होती किसी को कुछ चाहिए किसी को कुछ। समय के साथ -साथ समझ आया कि इच्छा क्या होती है ?बड़े होने पर पता चला कि इच्छा की वेदी पर तो पूरी जिंदगी ही न्यौछावर हो जाती है। जो बचपन इतना निश्छल ,पवित्र और मासूम होता है। वो इच्छा की वेदी पर चढ़ जाता है जैसे -जैसे इच्छाएँ बढ़ती हैं मनुष्य में उनकी पूर्ति के लिए सद्गुणों के साथ ही दुर्गुण भी स्वतः ही आ जाते हैं।
जब तक इन इच्छाओं का पता नहीं था ,जीवन कितना शांत और निर्मल था। जब इच्छाएं जगीं या इच्छाओं का ज्ञान हुआ तो जीवन रूपी एक हवन कुंड तैयार हो गया इस हवनकुंड में दिन -प्रतिदिन एक नई इच्छा रूपी अग्नि प्रज्वलित होती। और उस जीवन रूपी हवन कुंड में स्वाहा होते -अपनापन ,रिश्ते ,प्यार और सम्पूर्ण जीवन। इच्छा एक हो तो मनुष्य फिर भी सँभल जायें लेकिन इच्छाएं तो अनंत हैं। तभी तो कहते हैं कि मनुष्य तो इच्छाओं का दास है। नदी में पैसे डालने का अर्थ अब धीरे -धीरे समझ आने लगा की नदी के शीतल जल में अपनी इच्छाएं भी डाल दो ,ताकि वो शांत हों। इच्छा रूपी अग्नि शांत हो जिसने इस जीवन को अशांत कर रखा है।
इच्छाओँ के जिस सागर ने इस जीवन में उथल -पुथल मचा रखी है ,उनकी शांति के लिए भी मनुष्य अपनी कूटनीतियों से बाज़ नहीं आता। कि पैसे डालो और इच्छाएँ मांगों, माँगना ये चाहिए कि जो इच्छाएं हैं वो शांत हों। मनुष्य इच्छाओं का दास तो है ही ,लालची भी। अपनी इस सोच के चलते उसने प्रकृति को भी नहीं छोड़ा।
धीरे -धीरे प्रकृति की भी समझ आ रही है कि ये कैसे हमें जीवन दान देती है ?बचपन तो निश्छल चंचल होता है। अभी हमें इतनी भी समझ नहीं ,कौन हैं हम ?कहाँ से आये ?क्या हमारे जीवन का उद्देश्य है। जीवन को जीना सीख रहे हैं अभी। प्रकृति ने जो हमें चीजें दी हैं उनका आनन्द ले रहे हैं। जीवन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। जब मैं पहली बार बस में बैठा उसका आनन्द ही कुछ और था। मैं अपने पिता को बस में लिखीं पंक्तियाँ पढ़कर सुनाता तो पिता खुश होते। फिर मैं उनके अर्थ पूछता ,मेरी बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृति रही है। मैं बस की खिड़की के पास बैठा कुदरत के बनाये करिश्मों का अवलोकन कर रहा था। कुछ देर बाद मेरी खिड़की के पास कुछ सवारी [बस में जो लोग यात्रा कर रहे थे ,उन्हें वो बस वाला इसी नाम से पुकार रहा था ]आकर खड़ी हो गईं। मैंने भीड़ देखकर अपने माता -पिता को देखा ,उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से शांत होने का इशारा किया।
तभी मैंने देखा, वो लोग एक बड़ी सी नहर में पैसे डाल रहे हैं ,मैंने अपनी माँ की तरफ देखा वो भी मुझे पैसे दे रहीं थीं और बोलीं - पैसे डाल दो ,कोई इच्छा हो तो माँगो। मैंने और लोगों की तरह पैसे डाल दिए और हाथ भी जोड़े पर समझ नहीं आया कि ये इच्छा क्या होती है ?हम इस नदी से क्यों माँग रहे हैं। मेरे पास तो कोई इच्छा ही नहीं है। मैंने अपनी माँ से पूछा -ये इच्छा क्या है ?इसे हम क्यों माँग रहे हैं ?हमारे पास अपनी कोई इच्छा नहीं है। माँ ने बताया -इच्छा तो अपनी ही होती है पर हम उसे पूरी करने की कामना में नदी से उसका आशीर्वाद मांगते हैं। नदी हमारी इच्छाओं को कैसे पूरी करती है ?मैं क्या मांगू ,मेरी तो कोई इच्छा ही नहीं। मेरी तो सारी इच्छाएँ पिता पूरी करते हैं। माँ ने मेरी बातों को हँसकर टाल दिया।
मैंने अपने गुरूजी से पूछा -कि इच्छा क्या होती है ?और एक नदी उसे कैसे पूरी करती है ?तब गुरूजी ने बताया -नदी का जल हमें जीवन दान देता है उससे पौधों की सिंचाई होती है ,जिससे फ़ल -फूल पैदा हों और हमारा पेट भरे। इच्छा तो मनुष्य की अपनी सोच है इच्छा कभी एक नहीं होती किसी को कुछ चाहिए किसी को कुछ। समय के साथ -साथ समझ आया कि इच्छा क्या होती है ?बड़े होने पर पता चला कि इच्छा की वेदी पर तो पूरी जिंदगी ही न्यौछावर हो जाती है। जो बचपन इतना निश्छल ,पवित्र और मासूम होता है। वो इच्छा की वेदी पर चढ़ जाता है जैसे -जैसे इच्छाएँ बढ़ती हैं मनुष्य में उनकी पूर्ति के लिए सद्गुणों के साथ ही दुर्गुण भी स्वतः ही आ जाते हैं।
जब तक इन इच्छाओं का पता नहीं था ,जीवन कितना शांत और निर्मल था। जब इच्छाएं जगीं या इच्छाओं का ज्ञान हुआ तो जीवन रूपी एक हवन कुंड तैयार हो गया इस हवनकुंड में दिन -प्रतिदिन एक नई इच्छा रूपी अग्नि प्रज्वलित होती। और उस जीवन रूपी हवन कुंड में स्वाहा होते -अपनापन ,रिश्ते ,प्यार और सम्पूर्ण जीवन। इच्छा एक हो तो मनुष्य फिर भी सँभल जायें लेकिन इच्छाएं तो अनंत हैं। तभी तो कहते हैं कि मनुष्य तो इच्छाओं का दास है। नदी में पैसे डालने का अर्थ अब धीरे -धीरे समझ आने लगा की नदी के शीतल जल में अपनी इच्छाएं भी डाल दो ,ताकि वो शांत हों। इच्छा रूपी अग्नि शांत हो जिसने इस जीवन को अशांत कर रखा है।
इच्छाओँ के जिस सागर ने इस जीवन में उथल -पुथल मचा रखी है ,उनकी शांति के लिए भी मनुष्य अपनी कूटनीतियों से बाज़ नहीं आता। कि पैसे डालो और इच्छाएँ मांगों, माँगना ये चाहिए कि जो इच्छाएं हैं वो शांत हों। मनुष्य इच्छाओं का दास तो है ही ,लालची भी। अपनी इस सोच के चलते उसने प्रकृति को भी नहीं छोड़ा।

