घर में कुछ मेहमान आए थे। रोहित से बात करके चाय -नाश्ता करके चले गए। मैंने भी ध्यान नहीं दिया , कुछ दिन बाद और लोग भी आये उनमें मेरे जानकार भी थे। उनके जाने के बाद आख़िर मेने पूछ ही लिया कि ये लोग क्यूँ और कैसे यहाँ आ रहें हैं ?रोहित ने मुझे ऐसे ही टालने के लिए 'कुछ नहीं 'कहकर बाहर निकल गए।लेकिन ये बात मुझे अखर रही थी। जो लोग सालों- साल दिखाई नहीं दिये ,वो इस तरह बार -बार आ रहे हैं। रोहित कुछ बता भी नहीं रहे। आने दो ,उन्हें आते ही पूछुंगी -क्या चल रहा है।
रोहित के आते ही मैंने पूछ ही लिया ''ये आपके भाई साहब क्यों बार -बार आ रहे हैं ,क्या बात है. अरे कुछ नहीं ,रोहित ने झल्लाकर कहा- तुम एक बात के पीछे पड़ जाती हो ,उनका अपना काम है। तुम्हें क्या लेना ?इसमें मैंने ऐसा क्या ,पूछ लिया -जो तुम इतना झल्ला रहे हो। तुम्हे ज़रूरत ही क्या है ,पूछने की अपने काम से काम रखो। जितना तुम्हे बताया जाये ,उतना ही करो. रोहित के इस व्यवहार से आहत हो मैं रुआँसी हो अंदर आ गई। पर इतना जरूर यक़ीन था ,कि रोहित ज़रूर मुझसे कुछ न कुछ छिपा रहे हैं। उसके व्यवहार से दिल बहुत दुःखी था ,मैं सोच रही थी -
औरत की ये कैसी विडंबना है।, अपना घर छोड़ देती है दूसरा नया संसार बसाने के लिए ,जीवन को उस नए संसार को बनाने में जी -जान लगा देती है। जिंदगी भर उसे सजाती -संवारती है। पूरी जिंदगी निकल जाती है ,उसे संवारते -संवारते।अन्त में उसे पता चलता है वो ये सब क्यूँ और किसलिए कर रही है। सब कुछ बेमानी नज़र आता है ऐसा लगता है ,इस भीड़ में वो अकेली खड़ी है। जिंदगी में जिनको अपना माना था ,वो तो खाली भ्र्म था। सब कुछ टूटता ,बिखरता नज़र आता है। सोचते -सोचते आँखे नम हो गईं। पिया सोने की कोशिश करने लगी ,पर विचार हैं ,कि आते जा रहे हैं।
दादी कहती थीं -'औरत दो घरों की इज्ज़त संभालती है ,दो घरों का मान रखती है। 'आज दादी ज़िंदा होती ,तो मैं पूछती -'दौराहे पर खड़ी ,उस औरत का अपना घर कौन -सा है, उसका अपना मान कहाँ है ?दो घर होने के बाद भी उसका अपना घर कौन सा है ?एक वो जहाँ बचपन बीता ,जो हर सुख -दुःख में माता -पिता के साथ रही ,उन्होंने पाला ,इस उम्मीद से कि इसे अगले घर जाना है। या फ़िर वो जिसमें जिंदगी की उलझनों से लड़ते -लड़ते आधी जिंदगी गुज़ार दी। ये सब बातें मन में बार -बार उथल -पुथल कर रही थीं। एक प्रश्न बार -बार मन में उठ रहा था। कौन हूँ मैं ?क्या है मेरी हैसियत ,इस घर में ?जीवन के इतने बरस निकाल दिए इस घर में ,और आज लगता है ,मैं कुछ हूँ ही नहीं ,इस घर में। उफ़ कितनी बेबसी है। क्या कर सकती है ?ये नारी।
मुझे आज भी याद है ,मेरे लिए तो कल ही की बात है ,जब घरवालों ने घर से निकाल दिया था। हमारे साथ कोई न था किसी से सहारे की उम्मीद भी न थी। क्या करें ?कहाँ जायें ?सवाल था -कहाँ रहेगें ,क्या करेंगे क्या खायेंगे ?सब कुछ शुरू से शुरू करना था। परेशान रोहित के साथ मैं हिम्मत करके खड़ी रही
गहने बेचकर रोहित का काम शुरू करवाया। खुद भी रोहित से छुपकर काम किया। रोहित के पास जब पैसे न
होते ,चुपचाप उसके पर्स में रख देती ,जो परेशानी उस समय मैने झेली थी वो मैं ही जान या समझ सकती हूँ। रोहित का मैंने हर परिस्थिति में सहयोग किया, उसके साथ खड़ी रही. किसी अच्छे की उम्मीद से परेशानियाँ झेलीं अपना पति और अपने बच्चे तो अपने साथ हैं। धीरे -धीरे घर में तरक्क़ी हुई ,लगा अब जीवन शांति -पूर्वक
बिताएंगे और तभी ये भाई साहब आये और घर में ये क्लेश हो गया।
रोहित का भी परिवार प्रेम उमड़ आया। भाई साहब आते हैं ,चुपचाप आपस में कुछ बातें करते हैं ,चले जाते है। अब तो माँ का भी प्रेम उमड़ आया। जब मैने पूछा -ये सब क्या चल रहा है ?तो मुझे झिड़क दिया। 'कुछ नहीं 'मैने कहा -'जब हमारे पास कुछ नहीं था ,हम परेशान थे ,तब किसी ने नहीं पूछा -कहाँ हो ?कैसे हो /
हर परेशानी हर दुःख में मैंने साथ दिया। अब परिवार प्रेम उमड़ आया। ;मैं कुछ भी नहीं '-कहकर पिया कमरे से बाहरआ गई। पूरे घर को उसने एक नज़र निहारा। फिर बच्चों के पास गई ,बच्चें पढ़ रहे थे ,अपने काम में लगे थे
मेरे मन में प्रश्न बार -बार उठ रहा था -इन सबमें या इस घर में मैं कहाँ हूँ ;
रोहित के आते ही मैंने पूछ ही लिया ''ये आपके भाई साहब क्यों बार -बार आ रहे हैं ,क्या बात है. अरे कुछ नहीं ,रोहित ने झल्लाकर कहा- तुम एक बात के पीछे पड़ जाती हो ,उनका अपना काम है। तुम्हें क्या लेना ?इसमें मैंने ऐसा क्या ,पूछ लिया -जो तुम इतना झल्ला रहे हो। तुम्हे ज़रूरत ही क्या है ,पूछने की अपने काम से काम रखो। जितना तुम्हे बताया जाये ,उतना ही करो. रोहित के इस व्यवहार से आहत हो मैं रुआँसी हो अंदर आ गई। पर इतना जरूर यक़ीन था ,कि रोहित ज़रूर मुझसे कुछ न कुछ छिपा रहे हैं। उसके व्यवहार से दिल बहुत दुःखी था ,मैं सोच रही थी -
औरत की ये कैसी विडंबना है।, अपना घर छोड़ देती है दूसरा नया संसार बसाने के लिए ,जीवन को उस नए संसार को बनाने में जी -जान लगा देती है। जिंदगी भर उसे सजाती -संवारती है। पूरी जिंदगी निकल जाती है ,उसे संवारते -संवारते।अन्त में उसे पता चलता है वो ये सब क्यूँ और किसलिए कर रही है। सब कुछ बेमानी नज़र आता है ऐसा लगता है ,इस भीड़ में वो अकेली खड़ी है। जिंदगी में जिनको अपना माना था ,वो तो खाली भ्र्म था। सब कुछ टूटता ,बिखरता नज़र आता है। सोचते -सोचते आँखे नम हो गईं। पिया सोने की कोशिश करने लगी ,पर विचार हैं ,कि आते जा रहे हैं।
दादी कहती थीं -'औरत दो घरों की इज्ज़त संभालती है ,दो घरों का मान रखती है। 'आज दादी ज़िंदा होती ,तो मैं पूछती -'दौराहे पर खड़ी ,उस औरत का अपना घर कौन -सा है, उसका अपना मान कहाँ है ?दो घर होने के बाद भी उसका अपना घर कौन सा है ?एक वो जहाँ बचपन बीता ,जो हर सुख -दुःख में माता -पिता के साथ रही ,उन्होंने पाला ,इस उम्मीद से कि इसे अगले घर जाना है। या फ़िर वो जिसमें जिंदगी की उलझनों से लड़ते -लड़ते आधी जिंदगी गुज़ार दी। ये सब बातें मन में बार -बार उथल -पुथल कर रही थीं। एक प्रश्न बार -बार मन में उठ रहा था। कौन हूँ मैं ?क्या है मेरी हैसियत ,इस घर में ?जीवन के इतने बरस निकाल दिए इस घर में ,और आज लगता है ,मैं कुछ हूँ ही नहीं ,इस घर में। उफ़ कितनी बेबसी है। क्या कर सकती है ?ये नारी।
मुझे आज भी याद है ,मेरे लिए तो कल ही की बात है ,जब घरवालों ने घर से निकाल दिया था। हमारे साथ कोई न था किसी से सहारे की उम्मीद भी न थी। क्या करें ?कहाँ जायें ?सवाल था -कहाँ रहेगें ,क्या करेंगे क्या खायेंगे ?सब कुछ शुरू से शुरू करना था। परेशान रोहित के साथ मैं हिम्मत करके खड़ी रही
गहने बेचकर रोहित का काम शुरू करवाया। खुद भी रोहित से छुपकर काम किया। रोहित के पास जब पैसे न
होते ,चुपचाप उसके पर्स में रख देती ,जो परेशानी उस समय मैने झेली थी वो मैं ही जान या समझ सकती हूँ। रोहित का मैंने हर परिस्थिति में सहयोग किया, उसके साथ खड़ी रही. किसी अच्छे की उम्मीद से परेशानियाँ झेलीं अपना पति और अपने बच्चे तो अपने साथ हैं। धीरे -धीरे घर में तरक्क़ी हुई ,लगा अब जीवन शांति -पूर्वक
बिताएंगे और तभी ये भाई साहब आये और घर में ये क्लेश हो गया।
रोहित का भी परिवार प्रेम उमड़ आया। भाई साहब आते हैं ,चुपचाप आपस में कुछ बातें करते हैं ,चले जाते है। अब तो माँ का भी प्रेम उमड़ आया। जब मैने पूछा -ये सब क्या चल रहा है ?तो मुझे झिड़क दिया। 'कुछ नहीं 'मैने कहा -'जब हमारे पास कुछ नहीं था ,हम परेशान थे ,तब किसी ने नहीं पूछा -कहाँ हो ?कैसे हो /
हर परेशानी हर दुःख में मैंने साथ दिया। अब परिवार प्रेम उमड़ आया। ;मैं कुछ भी नहीं '-कहकर पिया कमरे से बाहरआ गई। पूरे घर को उसने एक नज़र निहारा। फिर बच्चों के पास गई ,बच्चें पढ़ रहे थे ,अपने काम में लगे थे
मेरे मन में प्रश्न बार -बार उठ रहा था -इन सबमें या इस घर में मैं कहाँ हूँ ;