ये बात आज, कल की नहीं ,ये बात तो बरसों पुरानी है ,क़रीब सत्ताईस बरस पुरानी। जब हम दोनों मिले। हम दोनों एक ही कॉलिज में थे। उसने मुझे देखा ,मैंने लापरवाही से देखा और नज़र फेर ली। बाद में मालूम हुआ हम दोनों की तो कक्षा भी एक ही है। ओह नो !एक ही सेक्शन। ये तो कमाल ही हो गया ,जब पता चला -हमारी बिरादरी भी एक है। मैं आगे बैंच पर बैठी थी और वो मेरे ही पीछे की बैंच पर था। अपने हाव -भाव से ,मुझे अपने होने का एहसास करा ही देता। शुरू -शुरू में तो मुझे लगा -ये अपने को विशेष दिखाना चाहता है ,कभी लगता, सीधा -साधा है। आस -पास ही मंडराता रहता। कोई छेड़ भी देता तो पता नहीं उससे क्या कहता ?वो फिर से पलटकर नहीं देखता। मैं कॉलिज न जाती तो इंतजार करता। और जब पहुंच जाती तो उसे भी सूचना पहुंच जाती और तुरंत ही ज़नाब कॉलिज में। कई बार उसके दोस्तों के मुख से सुना ,अरे यार तेरी तो ग़म में दाढ़ी बढ़ी थी ,कहाँ गयी ?तब मुस्कुराकर कहता -''ग़म गया, दाढ़ी भी गयी ''एक बरस किसी तरह बीता। साल के अंत में बोला -आज मेरे घर चलो ,मैं क्यों तुम्हारे घर जाऊँ ?मेरा प्रश्न था। मैं ऐसे ही किसी के घर नहीं जाती और अपनी रिक्शा में बैठ गयी।उसने मेरे रिक्शे को रोक दिया। मेरे साथ जो दोस्त थी ,वो बोली -अपनी कक्षा में ही तो है चलते हैं। मैंने दृढ़ता से इंकार कर दिया ,फिर उससे पूछा -तुम मुझे अपने घर क्यों ले जाना चाहते हो ?वो कहते हुए, झिझक रहा था बोला -आज मैं अपनी मम्मी से मिलाना चाहता हूँ ,मैंने उनसे कहा है कि मेरी एक दोस्त आएगी। नहीं ,कहकर मैंने रिक्शे वाले से चलने को कहा। मैंने एक बार उसकी तरफ देखा -वो मायूस सा खड़ा था। मुझे उस पर तरस आ गया और बोली -तुम क्या पैदल ही जाओगे ?हमें तुम्हारे घर का भी तो पता नहीं। मेरी बात सुनकर वो उछल पड़ा और उसी रिक्शे के पीछे बैठ गया।
जब हम उसके घर से लोेट रहे थे ,तब वो बोला -क्या तुम अब भी नहीं समझी ?मुझे किसी भी बात को कहना शायद ठीक तरह से न आता हो किन्तु मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। जिस लड़के को मैं बुद्धू सा ,शरारती ,कभी सीधा समझती थी ,उसने तो इस तरह बेबाक़ी से विवाह का प्रस्ताव ही रख दिया। मैं कुछ न ही समझ पाई, कि क्या कहूँ ,क्या न कहूँ ?उसके इस तरह कहने से प्रभावित अवश्य हुई। जब लड़कों की एकाएक हिम्मत नहीं होती दोस्ती या मोहब्बत का इजहार करने की भी और ये तो सीधे शादी का प्रस्ताव लेकर आ गया। मैंने घर आकर सम्पूर्ण बातें अपने माता -पिता से कहीं ,मेरे पिता इस बात से प्रभावित हुए कि उसे बहलाना -फुसलाना नहीं ,समय काटना नहीं चाहता ,विवाह ही करना चाहता है। किन्तु मेरी मम्मी ने इंकार कर दिया -लड़का कुछ काम नहीं करता। तीन बरस हम अपने -अपने घर रहे न कोई फोन ,न ही चिट्ठी।
तीन साल बाद वो पुनः मेरी ज़िंदगी में आया और बोला -मैं अब नौकरी भी करता हूँ ,अब तो कोई परेशानी नहीं है। इस तरह परिवार की रजामंदी से हम दोनों ''दाम्पत्य सूत्र ''में बंध गए। मुझे जब आज की तरह ''प्रपोज़ डे ''सुनती हूँ तो वो हसीन यादें स्मरण हो जाती हैं। और आज वो ही मेरे' हमसफ़र 'और दोस्त हैं ,अब कैसे न कहूँ -कि मैं सबसे ज्यादा प्यार इनसे करती हूँ। ''
